भावार्थ :
विशेषार्थ- इससे पूर्व के श्लोक में पुण्य को प्रधान बतलाकर उसको उपजित करने की प्रेरणा की गई है । इस पर शंका उपस्थित हो सकती थी कि शत्रु आदि के द्वारा जो उपद्रव आरम्भ किया जाता है उसे पुरुषार्थ के बल पर ही नष्ट किया जा सकता है, न कि दैव के ऊपर निर्भर रहते हुए अकर्मण्य बनकर । इसलिये अनुभवसिद्ध पुरुषार्थ को छोडकर अदृष्ट दैव के ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती है। इस आशंका को ध्यान में रखकर यहां इन्द्र का उदाहरण देते हुए यह बतलाया है कि देखो जो इन्द्र बृहस्पति आदिरूप असाधारण साधन सामग्री से सम्पन्न था वह भी मनुष्य कहे जाने वाले रावण आदि के द्वारा पराजित किया गया है (प. च. पर्व १२) । यदि पुरुषार्थ ही कार्य सिद्ध का कारण होता तो वह देवों का अधीश्वर कहा जानेवाला इन्द्र रावण आदि पुरूषों के द्वारा कभी पराजित नहीं हो सकता था, क्योंकि, उसका पुरुषार्थ असाधारण था। परन्तु वह पराजित अवश्य हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि देव के आगे पुरुषार्थ कुछ कार्यकारी नहीं है। यह उन लोगों को लक्ष्य करके कथन किया गया है जो सर्वथा देव की उपेक्षा करके केवल पुरुषार्थ के बल पर ही कार्यसिद्धि करना चाहते हैं । वास्तव में यदि विचार किया जाय तो सर्वथा पुरुषार्थ के द्वारा कार्य की सम्भावना नहीं दिखती । कारण कि हम देखते हैं कि समानरूप से पुरुषार्थ करने वाले अनेक व्यक्तियों में कुछ यदि सफलता को प्राप्त करते हैं तो कुछ विफलता को भी। एक ही कक्षा में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों में कुछ तो गुरु के द्वारा उपदिष्ट तत्त्व को शीघ्रता से ही ग्रहण करते हैं, कुछ उसे धीरे धीरे समझने में समर्थ होते हैं, और कुछ प्रयत्न करते हुए भी उसे ग्रहण करने में असमर्थ ही रहते हैं। इसी प्रकार उनके परीक्षा में बैठने पर जिनके प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की आशा की जाती थी वे अनुत्तीर्ण होते हुए देखे जाते हैं तथा जिनके उत्तीर्ण होने की सम्भावना नहीं थी वे उत्तम श्रेणी में उत्तीर्ण होते हुए देखे जाते हैं । इससे निश्चित होता है कि अकेला पुरुषार्थ ही कार्यकारी नहीं है, अन्यथा किया गया पुरुषार्थ कभी निष्फल ही नहीं होना चाहिये था। इसी तरह जिस प्रकार केवल पुरुषार्थ से कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती है उसी प्रकार केवल दैव से भी कार्य की सिद्धि सम्भव नहीं है। कारण यह कि यदि सर्वथा दैव को ही कार्यसाधक स्वीकार किया जाय तो यह शंका होती है कि वह दैव भी उत्पन्न कैसे हुआ ? यदि वह दैव पूर्व पुरुषार्थ के द्वारा निष्पन्न हुआ है तब तो सर्वथा दैव की प्रधानता नहीं रहती है, और यदि वह भी अन्य पूर्व दैव के निमित्त से आविर्भूत हुआ है तो फिर वैसी अवस्था में दैव की परम्परा के चलते रहने से कभी मोक्ष की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। इसलिये मोक्ष के निमित्त किया जानेवाला प्रयत्न निष्फल ही सिद्ध होगा । अतएव जब उन दोनों में अन्य की उपेक्षा करके किसी एक (दैव या पुरुषार्थ) के द्वारा कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती है तब यहां ऐसा निश्चय करना चाहिये कि प्रत्येक कार्य की सिद्धि में वे दोनों ही कारण होते हैं। हां, यह अवश्य है कि उनमें से यदि कहीं दैव की प्रधानता और पुरुषार्थ की गौणता भी होती है तो कहीं पुरुषार्थ की प्रधानता और दैव की गौणता भी होती है। जैसे कि स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा भी है- अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ आ. मी. ९१ ॥ अभिप्राय इसका यह है कि पूर्व में वैसा कुछ विचार न करने पर भी जब कभी अकस्मात् ही इष्ट अथवा अनिष्ट घटना घटती है, तब उसमें दैव को प्रधान और पुरुषार्थ को गौण समझना चाहिये । जैसे- अकस्मात् भूमि के खोदने आदि में धन की प्राप्ति अथवा यात्रा करते हुए किसी दुर्घटना में मरण की प्राप्ति । उसी प्रकार पूर्वापर विचार करने के पश्चात वैसा प्रयत्न करते हुए जो इष्ट अथवा अनिष्ट फल प्राप्त होता है उसमें पुरुषार्थ की प्रधानता और दैव की गौणता समझनी चाहिये । जैसे- व्यापार आदि कार्य करके धन का प्राप्त करना अथवा विषभक्षण आदि के द्वारा मरण का प्राप्त करना ॥३२॥ |