भर्तारः कुलपर्वता इव भुवो मोहं विहाय स्वयं
रत्नानां निधयः पयोधय इव व्यावृत्तवित्तस्पहाः ।
स्पृष्टाः कैरपि नो नभो विभुतया विश्वस्य विश्रान्तये
सन्त्यद्यापि चिरन्तनान्तिकचराः सन्तः कियन्तोऽप्यमी ॥३३॥
अन्वयार्थ : जो स्वयं मोह को छोडकर कुलपर्वतों के समान पृथिवी का उद्धार करने वाले हैं, जो समुद्रों के समान स्वयं धन की इच्छा से रहित होकर रत्नों के स्वामी हैं, तथा जो आकाश के समान व्यापक होने से किन्हीं के द्वारा स्पृष्ट न होकर विश्व की विश्रान्ति के कारण हैं; ऐसे अपूर्व गुणों के धारक पुरातन मुनियों के निकट में रहने वाले वे कितने ही साधु आज भी विद्यमान हैं ॥३३॥
Meaning : Worthy saints who have vanquished delusion and are disciples of ancient-preceptors exist even today. They tend the people, like the mountain-chains protect the earth. Owning gems, like right faith , but with no desire for wealth, they are like the oceans which are repositories of precious jewels.Untouched , they provide solace to all, like the expanse of space which, though untouched, provides room to all
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां यह आशंका हो सकती थी कि दैव के ऊपर विश्वास रखकर व्रतों का आचरण करने वाले मनुष्य इस समय सम्भव नहीं हैं, उनकी केवल पुराणों में ही बात सुनी जाती है । इस आशंका का परिहार करते हुए यहां यह बतलाया है कि वैसे साधु पुरुष कुछ थोडे-से आज भी यहां विद्यमान हैं, उनका सर्वथा अभाव अभी भी नहीं है । जिस प्रकार हिमालय आदि कुलपर्वत मोह से रहित होकर पृथिवी को धारण करते हैं उसी प्रकार वे साधुजन भी निर्मोह होकर पृथिवी के प्राणियों का उद्धार करते हैं, जिस प्रकार समुद्र मोती आदि बहुमूल्य रत्नों का आश्रय (रत्नाकर) होकर भी स्वयं उनकी इच्छा नहीं करता है उसी प्रकार वे साधु पुरुष भी सम्यग्दर्शन आदिरूप गुणरत्नों के आश्रय होकर धन की इच्छा से रहित होते हैं, तथा जिस प्रकार आकाश किन्हीं पदार्थों से लिप्त न होकर अपने व्यापकत्व गुण से समस्त पदार्थों को आश्रय देता है; उसी प्रकार वे साधु जन भी रागादि दोषों से लिप्त न होकर अपने महात्म्य से समस्त प्राणियों के संक्लेश को दूर करके उनको आश्रय देते हैं ॥३३॥
|