भावार्थ :
विशेषार्थ- अभिप्राय इसका यह है कि प्रत्येक प्राणी की तृष्णा इतनी अधिक बढी हुई है कि समस्त विश्व की सम्पत्ति भी यदि उसे प्राप्त हो जाय तो भी उसकी वह तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती है। फिर भला जरा विचार तो कीजिये कि प्राणी तो अनन्त हैं और उनमें से प्रत्येक की विषयतृष्णा उसी प्रकार से वृद्धिंगत है। ऐसी अवस्था में यदि विश्व की समस्त सम्पत्ति को भी उनमें विभाजित किया जाय तो उसमें से प्रत्येक प्राणी के लिये जो कुछ प्राप्त हो सकता है वह नगण्य ही होगा। अतएव यहां यह उपदेश दिया गया है कि जब प्राणी की विषयतृष्णा कभी पूर्ण नहीं हो सकती, बल्कि वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है; तब उन विषयों की इच्छा करना ही व्यर्थ है ॥३६॥ |