+ विषयाभिलाषा की व्यर्थता -
आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् ।
कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥३६॥
अन्वयार्थ : आशारूप वह गड्ढा प्रत्येक प्राणी के भीतर स्थित है जिसमें कि विश्व परमाणु के बराबर प्रतीत होता है । फिर उसमें किसके लिये क्या और कितना आ सकता है ? अर्थात् प्रायः नहीं के समान ही कुछ आ सकता है। अतएव हे भव्यजीवों ! तुम्हारी उन विषयों की अभिलाषा व्यर्थ है॥३६॥
Meaning : Every living being carries in him that deep pit of desires in which the world (all sense-objects) appears to be just like an atom. This be the case, how much can each living being get? Almost nothing. It is, therefore, futile to carry desires for the sense-objects.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अभिप्राय इसका यह है कि प्रत्येक प्राणी की तृष्णा इतनी अधिक बढी हुई है कि समस्त विश्व की सम्पत्ति भी यदि उसे प्राप्त हो जाय तो भी उसकी वह तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती है। फिर भला जरा विचार तो कीजिये कि प्राणी तो अनन्त हैं और उनमें से प्रत्येक की विषयतृष्णा उसी प्रकार से वृद्धिंगत है। ऐसी अवस्था में यदि विश्व की समस्त सम्पत्ति को भी उनमें विभाजित किया जाय तो उसमें से प्रत्येक प्राणी के लिये जो कुछ प्राप्त हो सकता है वह नगण्य ही होगा। अतएव यहां यह उपदेश दिया गया है कि जब प्राणी की विषयतृष्णा कभी पूर्ण नहीं हो सकती, बल्कि वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है; तब उन विषयों की इच्छा करना ही व्यर्थ है ॥३६॥