+ गृहस्थाश्रम के त्याग की प्रेरणा -
सर्व धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं
क्वाप्येतद् द्वयवत्करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि ।
तस्मादेष तदन्धरज्जुवलनं स्नानं गजस्याथवा
मत्तोन्मत्तविचेष्टितं न हि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥४१॥
अन्वयार्थ : गृहस्थाश्रम विद्वज्जनों के भी चरित्र को प्रायः किसी सामायिक आदि शुभ कार्य में पूर्णतया धर्मरूप, किसी विषयभोगादिरूप कार्य में पूर्णतया पापरूप तथा किसी जिनगृहादि के निर्मापणादिरूप कार्य में उभय (पुण्य-पाप) रूप करता है। इसलिये यह गृहस्थाश्रम अन्धे के रस्सी भांजने के समान, अथवा हाथी के स्नान के समान अथवा शराबी या पागल की प्रवृत्ति के समान सर्वथा हितकारक नहीं है ॥४१॥
Meaning : The stage of the householder for even those rich in wisdom, in general, results in these kinds of conduct: full of merit (when engaged in auspicious activity like meditation on the Self), full of demerit (when engaged in enjoyment of sense-pleasures), and part merit and part demerit (when engaged in activities like building of a temple). It is like the making of a rope by the blind (as he twists one end of the rope, the other end gets undone), or the bathing of an elephant (no sooner had it sprinkled the water, than it put mud on the body), or the actions of the inebriated man (being without discrimination, his actions are not praiseworthy). This stage of the householder is not wholly beneficial.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अन्धा मनुष्य आगे आगे रस्सो को भांजता है, परन्तु वह पीछे से उकलती जाती है, अतएव जिस प्रकार उसका वह रस्सी भांजना व्यर्थ है; अथवा हाथी पहिले स्नान करता है और तत्पश्चात् वह पुनः अंग पर धूलि डाल लेता है, इसलिये जिस प्रकार उक्त हाथी का स्नान करना व्यर्थ है; अथवा शराबी या पागल मनुष्य कभी उत्तम और कभी निकृष्ट चेष्टा करता है, परन्तु वह विवेकशून्य होने से जिस प्रकार हितकारक नहीं है; उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी हितकारक नहीं है । कारण यह कि उक्त गृहस्थाश्रम में रहता हुआ मनुष्य जहां जिनपूजा, स्वाध्याय एवं दानादिरूप शुभ कार्यों को करता है वहां वह अर्थोपार्जन के लिये हिंसाजनक आरम्भ एवं विषयसेवनादिरूप पापाचरण भी करता ही है । अतएव अन्धे के रस्सी भांजने आदि के समान वह गृहस्थाश्रम कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता है । जीव का सच्चा कल्याण उक्त गृहस्थाश्रम को छोड करके निर्ग्रन्थ अवस्था की प्राप्ति में ही सम्भव है ॥४१॥