कृष्ट्वोप्त्वा नृपतीन्निषेव्य बहुशो भ्रान्त्वा वनेऽम्भोनिधौ
किं क्लिश्नासि सुखार्थमत्र सुचिरं हा कष्टमज्ञानतः।
तैलं त्वं सिकतास्वयं मृगयसे वाञ्छेद्विषाज्जीवितुं
नन्वाशाग्रहनिग्रहात्तव सुखं न ज्ञातमेतत्त्वया ॥४२॥
अन्वयार्थ : तुम यहां सुख को प्राप्त करने की आशा से भूमि को जोतकर और बीज बोकर के अर्थात् खेती करके, राजाओं की सेवा करके अर्थात् दासकर्म करके, तथा बहुत बार वन में और समुद्र में परिभ्रमण करके अर्थात् व्यापार करके बहुत काल से क्यों कष्ट सह रहे हो? खेद है कि तुम अज्ञानता से यह जो कष्ट सह रहे हो उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि तुम बालु में तेल की खोज कर रहे हो अथवा विषभक्षण से जीने की इच्छा कर रहे हो। अभिप्राय यह कि जिस प्रकार बालु में तेल की प्राप्ति असम्भव है अथवा विष के भक्षण से जीवित रहना असम्भव है उसी प्रकार उक्त कृषि आदि के द्वारा यथार्थ सुख का प्राप्त होना भी असम्भव है। हे भव्य ! क्या तुझे यह ज्ञात नहीं है कि तेरा वह अभीष्ट सुख निश्चयतः आशा रूप पिशाची के नष्ट करने से ही प्राप्त हो सकता है ? ॥४२॥
Meaning : Why, in search of happiness, since long, are you tormenting yourself by ploughing the field, sowing the seeds, serving the kings, and wandering about in forests and on seas? It is a pity that the torment you experience springs from ignorance; it is like searching for oil in the sand, or wishing to live on poison. O worthy soul! Are you not aware that the happiness that you seek surely lies in vanquishing the demon of desires?
भावार्थ