+ आशारूपी अनि से दग्ध व्यक्ति की चेष्टा -
आशाहुताशनग्रस्तवस्तूच्चैर्वंशजां जनाः ।
हा किलैत्य सुखच्छायां दुःखधर्मापनोदिनः ॥४३॥
अन्वयार्थ : खेद है कि अज्ञानी प्राणी आशारूप अग्नि से व्याप्त भोगोपभोग वस्तुओं रूप ऊंचे वांसों से उत्पन्न हुई सुख की छाया (सुखाभास = दुख) को प्राप्त करके दुखरूप सन्ताप को दूर करना चाहते हैं॥४३॥
Meaning : It is a pity that ignorant men, burning with the fuel of desires, wish to get relief from the heat of anguish (misery) by seeking comfort in the shadow of high-rise bamboo-trees*!

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जो अज्ञानी प्राणी विषयतृष्णा के वश होते हुए अभीष्ट भोगोपभोग वस्तुओं को प्राप्त करके यथार्थ सुख प्राप्त करना चाहते हैं उनका यह प्रयत्न इस प्रकार का है जिस प्रकार कि सूर्य के ताप से पीडित होकर कोई मनुष्य उस संताप को दूर करने के लिए अग्नि से जलते हुए ऊंचे बांसों की छाया को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। अभिप्राय यह है कि प्रथम तो ऊंचे बांसों को कुछ उपयुक्त छाया ही नहीं पडती है, दूसरे वे अग्नि से जल भी रहे हैं, अतएव ऐसे बांसों की छाया का आश्रय लेनेवाले प्राणी का वह संताप जिस प्रकार नष्ट न होकर और अधिक बढता ही है उसी प्रकार विषयतृष्णा को शान्त करने की अभिलाषा से जो प्राणी इष्ट सामग्री के संचय में प्रवृत्त होता है इससे उसकी वह तृष्णा भी उतरोत्तर बढती ही है, परन्तु कम नहीं होती। जैसा कि समन्तभद्र स्वामीने भी कहा है " तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवै: परिवृद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत् ॥ बृ. स्व. 82॥ अर्थात् विषयतृष्णारूप अग्नि की ज्वालायें प्राणी को सब ओर से जलाती हैं । इनकी शान्ति इन्द्रियविषयों की वृद्धि से नहीं होती, बल्कि उससे तो वे और भी अधिक बढती हैं। यह उस तृष्णा का स्वभाव ही है। प्राप्त हुए इष्ट इन्द्रियविषय कुछ थोडे-से समय के लिए केवल शरीर के संताप को दूर कर सकते हैं । इस प्रकार विचार करके हे जितेन्द्रिय कुन्थु जिनेन्द्र ! आप चक्रवर्ती की भी विभूति को छोडकर उस विषयजन्य सुख से पराङ्मुख हुए हैं ॥४३॥