+ पुण्योदय के बिना कार्यसिद्धि नहीं -
खातेऽभ्यासजलाशयाऽजनि शिला प्रारब्धनिर्वाहिणा
भयोऽभेदि रसातलावधि ततः कृच्छात्सुतुच्छं किल ।
क्षारं वायुदगात्तदप्युपहतं पूतिकृमिश्रेणिभिः
शुष्कं तच्च पिपासतोऽस्य सहसा कष्ट विधेश्चेष्टितम् ॥४४॥
अन्वयार्थ : निकट में जलप्राप्ति की इच्छा से भूमि को खोदने पर चट्टान प्राप्त हुई। तब प्रारम्भ किये हुए इस कार्य का -निर्वाह करते हुए उसने पाताल पर्यन्त खोदकर उस चट्टान को तोड दिया । तत्पश्चात् वहां बडे कष्ट से कुछ थोडा-सा जो खारा जल प्रगट हुआ वह भी दुर्गन्धयुक्त और क्षुद्र कीडों के समूह से व्याप्त था। इसको भी जब वह पीने लगा तब वह भी शीघ्र सूख गया । खेद है कि दैव की लीला विचित्र है ॥४४॥
Meaning : In search of water in his vicinity, the thirsty man began by digging the earth. He struck a rock. Continuing his quest, he dug till he reached the under-world (pātāla). With great difficulty, he got only a little brackish water that was stinking and full of worms. That too dried up quickly as he thought of drinking it. The ways of karmas (read fate or daiva) are truly amazing!

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- यहां एक उदाहरण द्वारा पुरुषार्थ को गौण करके दैव की प्रधानता निर्दिष्ट की गई है । कल्पना कीजिये कि कोई एक मनुष्य प्यास से अतिशय पीडित था। इसलिये जल प्राप्त करने के लिये वह भूमि को खोदने लगता है । किन्तु कुछ थोडा-सा खोदने पर वहां एक विशाल कठोर चट्टान आ जाती है। इतने पर भी वह अपने प्रारब्ध कार्य को चालू रखते हुए उस चट्टान को तोड कर उसे बहुत अधिक गहरा खोद डालता है। तब कहीं उसे वहां कुछ थोडा-सा जल दिखायी देता है, सो भी खारा, दुर्गन्धयुक्त और कीडों से परिपूर्ण । फिर भी जब वह उसे भी पीना प्रारम्भ करता है तो वह भी देखते ही देखते सूख जाता है। इसको ही दैव की प्रतिकूलता समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि यदि पाप का उदय है तो प्राणी इष्ट विषयसामग्री को प्राप्त करने के लिये कितना भी अधिक प्रयत्न क्यों न करे, परंतु वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती है । यदि किसी प्रकार कुछ थोडी-सी प्राप्त भी हुई तो इससे उसकी तृष्णा अग्नि में डाले हुए घी के समान और भी अधिक बढती जाती है जिससे कि उसे शांति मिलने के बजाय अशांति ही अधिक प्राप्त होती है। अतएव सुखी रहने का सरल उपाय यही है कि पूर्व पुण्य से प्राप्त हुई सामग्री में संतोष रखकर भविष्य के लिये पवित्र आचरण करे । कारण यह कि सुख का हेतु एक धर्माचरण ही है, न कि केवल (देवनिरपेक्ष) पुरुषार्थ ॥४४॥