भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां एक उदाहरण द्वारा पुरुषार्थ को गौण करके दैव की प्रधानता निर्दिष्ट की गई है । कल्पना कीजिये कि कोई एक मनुष्य प्यास से अतिशय पीडित था। इसलिये जल प्राप्त करने के लिये वह भूमि को खोदने लगता है । किन्तु कुछ थोडा-सा खोदने पर वहां एक विशाल कठोर चट्टान आ जाती है। इतने पर भी वह अपने प्रारब्ध कार्य को चालू रखते हुए उस चट्टान को तोड कर उसे बहुत अधिक गहरा खोद डालता है। तब कहीं उसे वहां कुछ थोडा-सा जल दिखायी देता है, सो भी खारा, दुर्गन्धयुक्त और कीडों से परिपूर्ण । फिर भी जब वह उसे भी पीना प्रारम्भ करता है तो वह भी देखते ही देखते सूख जाता है। इसको ही दैव की प्रतिकूलता समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि यदि पाप का उदय है तो प्राणी इष्ट विषयसामग्री को प्राप्त करने के लिये कितना भी अधिक प्रयत्न क्यों न करे, परंतु वह उसे प्राप्त नहीं हो सकती है । यदि किसी प्रकार कुछ थोडी-सी प्राप्त भी हुई तो इससे उसकी तृष्णा अग्नि में डाले हुए घी के समान और भी अधिक बढती जाती है जिससे कि उसे शांति मिलने के बजाय अशांति ही अधिक प्राप्त होती है। अतएव सुखी रहने का सरल उपाय यही है कि पूर्व पुण्य से प्राप्त हुई सामग्री में संतोष रखकर भविष्य के लिये पवित्र आचरण करे । कारण यह कि सुख का हेतु एक धर्माचरण ही है, न कि केवल (देवनिरपेक्ष) पुरुषार्थ ॥४४॥ |