भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार नदियां कभी आकाश से बरसते हुए शुद्ध जल से परिपूर्ण नहीं होती हैं, किन्तु वे इधर उधर की गंदी नालियों आदि के बहते हुए जल से ही परिपूर्ण होती हैं; उसी प्रकार सम्पत्तियां भी कभी किसी के न्यायोपार्जित धन के द्वारा नहीं बढती हैं, किन्तु वे असत्यभाषण, मायाचार एवं चोरी आदि के द्वारा अन्य प्राणियों को पीडित करने पर ही वृद्धि को प्राप्त होती हुई देखी जाती हैं। इससे यहां यह सूचित किया गया है कि जो सज्जन मनुष्य यह सोचते हैं कि न्यायमार्ग से धन-सम्पत्तिको बढाकर उससे सुख का अनुभव करेंगे उनका वह विचार योग्य नहीं है ॥४५॥ |