भावार्थ :
विशेषार्थ – जो प्राणी यह विचार करते हैं कि भले ही सम्पत्ति न्याय अथवा अन्याय मार्ग से क्यों न प्राप्त होवे, फिर भी उससे धर्म, सुख, ज्ञान और शुभ गति की तो सिद्धि होती ही है, अतएव उसको उपार्जित करना योग्य ही है । ऐसा विचार करने वालों को लक्ष्य में रखकर यहां यह बतलाया गया है कि वैसी सम्पत्ति धर्म, सुख, ज्ञान और सुगति इनमें से किसी को भी सिद्ध नहीं कर सकती है । कारण यह कि धर्म का स्वरूप यह है कि जो दुख को दूर करे । वह धर्म समस्त धन-धान्यादि परिग्रह एवं राग-द्वेषादि को छोडकर यथाख्यातचारित्र के प्राप्त होने पर ही हो सकता है, अतः उसकी सिद्धि पापोत्पादक सम्पत्ति के द्वारा कभी नहीं हो सकती है । इसी प्रकार सुख भी वास्तविक वही हो सकता है जिसमें दुख का लेश न हो। ऐसा सुख उस सम्पत्ति से सम्भव नहीं है। सम्पत्ति के द्वारा प्राप्त होने वाला सुख आकुलता को उत्पन्न करनेवाला है तथा वह स्थायी भी नहीं है । अतएव वह सम्पत्ति सुख की भी साधक नहीं है । तथा जिसके प्रगट होने पर समस्त विश्व हाथ की रेखाओं के समान स्पष्ट दिखने लगता है वही ज्ञान यथार्थ ज्ञान कहलाने के योग्य है। वह ज्ञान (केवलज्ञान) भी उक्त संपत्ति से सिद्ध नहीं हो सकता। जिस गति से पुनः संसार में आगमन नहीं होता है वह पंचमगति (मोक्ष) ही सुगति है । वह सम्यग्दर्शन आदिरूप अपूर्व रत्नत्रय के द्वारा सिद्ध होती है, न कि धन-धान्य आदि के द्वारा । अतएव वैसा विचार करना अविवेकता से परिपूर्ण है ॥४६॥ |