+ बाह्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि के त्याग की प्रेरणा -
संकल्प्येदमनिष्टमिष्टमिदमित्यज्ञातयाथात्म्यको
बाह्ये वस्तुनि किं वृथैव गमयस्यासज्य कालं मुहुः ।
अन्तःशान्तिमुपैहि यावददयप्राप्तान्तकप्रस्फुर
ज्ज्वालाभीषणजाठरानलमुखे भस्मीभवेन्नो भवान् ॥४८॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! तू पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को न जानकर 'यह इष्ट है और यह अनिष्ट है' इस प्रकार मानता हुआ बाह्य वस्तुओं (स्त्री पुत्र एवं धन आदि) में आसक्त होकर व्यर्थ में ही क्यों बार बार समय को बिताता है ? जब तक तू प्राप्त हुए निर्दय काल (मरण) की प्रगट ज्वालाओं से भयानक औदार्य अग्नि के मुख में पडकर भस्मसात् नहीं होता है तबतक राग-द्वेषादि के परिहारस्वरूप आन्तरिक शान्ति को प्राप्त कर ले॥४८॥
Meaning : O worthy soul! Ignorant of the true nature of substances you have classified these as either desirable or undesirable. Why do you waste your time, over and over, by getting attached to external objects (the wife, the son, wealth)? Before you get reduced to ashes on getting burnt by the glittering flames of cruel and copious fire of death, attain internal happiness that is marked by freedom from attachment (rāga) and aversion (dveÈa).

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- किसका कब मरण होगा, इसे कोई भी प्राणी नहीं जानता है । इसलिये यहां परलोक को सुखमय बनाने के लिये यह उपदेश दिया गया है कि हे जीव! तू अविवेकी होकर बाह्य परपदार्थों में राग और द्वेष करता हुआ अपने समय को यों ही न बिता । कारण कि ऐसा करते हुए तुझे कभी निराकुलता प्राप्त न हो सकेगी। पहिली बात तो यह है कि ये बाह्य पदार्थ अपनी इच्छा अनुसार प्रायः प्राप्त ही नहीं होते हैं, फिर यदि पुण्य के उदय से कुछ प्राप्त भी हुए तो वे चिरस्थायी नहीं हैं--किसी न किसी प्रकार उनका वियोग अवश्य होने वाला है। अतएव हे भव्यजीव ! उन अस्थिर बाह्य पदार्थो में राग-द्वेष न करके तू अहिंसा आदि सद्व्रतों का आचरण करता हुआ स्थिर व निराबाध आत्मीक सुख को प्राप्त करने का प्रयत्न कर । यदि तूने ऐसा न किया और इस बीच मृत्यु का ग्रास बन गया तो फिर यह जो आत्महित की साधक सामग्री (मनुष्यभव आदि) तुझे सौभाग्य से प्राप्त हो गई है वह दुर्लभ हो जावेगी॥४८॥