आयातोऽस्यतिदूरमङग परवानाशासरित्प्रेरितः
कि नावैषि ननु त्वमेव नितरामेनां तरीतुं क्षमः।
स्वातन्त्र्यं व्रज यासि तीरमचिरान्नो चेद् दुरन्तान्तक ग्राहव्यात्तगभीरवक्त्रविषमे मध्ये भवाब्धेर्भवेः ॥४९॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! तू पराधीन बनकर तृष्णारूपी नदी से प्रेरित होता हुआ बहुत दूर आ गया है। क्या तू यह नहीं जानता है कि निश्चय से इस तृष्णारूप नदी को पार करने के लिये तू ही अतिशय समर्थ है ? अतएव तू स्वतन्त्रता का अनुभव कर जिससे कि शीघ्र ही उस तृष्णानदी के किनारे जा पहुंचे । यदि तू ऐसा नहीं करता है तो फिर उस विषयतृष्णारूप नदी के प्रवाह में बहकर दुर्दम यमरूप मगर के खुले हुए गम्भीर मुख से भयानक ऐसे संसाररूप समुद्र के मध्य में जा पहुंचेगा ॥४९॥
Meaning : O soul! Floating in the river of desires, in a state of dependence, you have gone very far astray. Are you not aware that, in reality, you are quite capable of crossing this river of desires? Hence, experience independence so that you soon reach the shore of this river. If you do not exert soon, floating in the current of this river of desires, you are bound to enter the ocean of worldly existence that is more terrible than the deep and wide-open mouth of the crocodile of death.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि नदी के प्रवाहमें पड़ जाता है तो वह दूर तक बहता हुआ चला जाता है । ऐसी अवस्था में यदि वह अपने तैरने के सामर्थ्य का अनुभव करके उसे पार करने का प्रयत्न करे तो वह निश्चित ही उससे पार हो सकता है। परन्तु यदि वह व्याकुल होकर अपनी तैरने की कला का स्मरण नहीं करता है तो फिर वह उसके साथ बहता हुआ उस भयानक अपार समुद्र के बीच में जा पहुंचेगा जहां उसे खाने के लिये मुख को फाडकर हिंस्र जलजन्तु (मगर व घडयाल आदि) तत्पर रहेंगे। ठीक इसी प्रकार से अज्ञानी प्राणी नदी के समान भयावह विषयों की तृष्णा में फंसकर उसके कारण मोक्षमार्ग से बहुत दूर हो जाता है । वह यदि यह विचार करे कि मैं स्वयं ही इस विषयतृष्णा में फंसा हूं, अतः इससे छुटकारा पाने में भी मैं पूर्णतया स्वतन्त्र हूं, मुझे दूसरा कोई परतन्त्र करने वाला नहीं है; तो वह उक्त विषयतृष्णा को छोडकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो सकता है । परन्तु यदि वह अपनी ही अज्ञानता से ऐसा नहीं करता है तो यह निश्चित है कि इससे वह समुद्र के समान अथाह और अपरिमित उस संसार (निगोदादि पर्याय) के मध्य में जा पहुंचेगा कि जहां से उसका निकलना अशक्य होगा और जहां उसे अनन्त बार जन्ममरण के दुख को सहना पडेगा ॥४९॥
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