आस्वाद्याद्य यदुज्झितं विषयिभिर्व्यावृत्तकौतूहलै स्तद्भूयोऽप्यविकुत्सयन्नभिलषस्यप्राप्तपूर्वं यथा
जन्तो किं तव शान्तिरस्ति न भवान् यावद् दुराशामिमा
मंहःसंहतिवीरवैरिपृतनाश्रीवैजयन्ती हरेत् ॥५०॥
अन्वयार्थ : जिन स्त्री आदि भोगों को विषयी जनों ने भोग करके अनुराग के हट जाने से छोड दिया है उनको तू घृणा से रहित होकर फिर से भी इस प्रकार से भोगने की इच्छा करता है जैसे कि मानों वे कभी पूर्व में प्राप्त ही न हुए हो। हे क्षुद्रप्राणी ! जब तक तू पापसमूहरूप वीर शत्रु की सेना की फहराती हुई ध्वजा के समान इस दुष्ट विषयतृष्णा को नष्ट नहीं कर देता है तब तक क्या तुझे शान्ति प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है ॥५०॥
Meaning : You long for, without a sense of revulsion and as if you had never enjoyed these earlier, the sense-pleasures that the sensual men have chucked up as they got rid of delusion. O soul! Can you ever get real happiness until you conquer the craving for evil sensepleasures that confront you in form of brave enemy-army comprising host of sins and whose flag flies high?
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार युद्ध भूमि में जब तक शत्रुसेना की ध्वजा फहराती रहती है तबतक शूर-वीरों को शान्ति नहीं मिलती है- तब तक वे उस ध्वजा को गिराने के लिये भीषण रण में ही उद्युक्त रहते हैं। इस प्रकार जब वे उस शत्रु की ध्वजा को छिन्नभिन्न कर डालते हैं तब ही उन्हें अभूतपूर्व आनन्द का अनुभव होता है। ठीक उसी प्रकार से यह प्राणी भी जबतक शत्रुसेना की ध्वजा के समान उस दुष्ट विषयवासना को नष्ट नहीं कर देता है तबतक शान्ति (सन्तोष) को प्राप्त नहीं होता-- वह उन विषयों को प्राप्त करने के लिये नाना प्रकार के कष्टों को ही सहता है। किन्तु जैसे ही वह विवेक को प्राप्त होकर उक्त विषयतृष्णा को नष्ट कर देता है वैसे ही उसे अनुपम शान्ति का अनुभव होने लगता है । इससे यह निश्चित है कि सुख का कारण अभीष्ट विषयों की प्राप्ति नहीं है, किन्तु उनका परित्याग ही है ॥५०॥
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