भङ्क्त्वा भाविभवांश्च भोगिविषमान् भोगान् बुभुक्षुर्भृशं
मृत्वापि स्वयमस्तभीतिकरुणः सर्वान्जिघांसुर्मुधा।
यद्यत्साधुविगर्हितं हतमतिस्तस्यैव धिक् कामुकः कामक्रोधमहाग्रहाहितमनाः किं किं न कुर्याज्जनः ॥५१॥
अन्वयार्थ : जो स्वर्गादिरूप आगामी भव भोगी जनों के लिये विषम हैं, अर्थात् जो विषयी जनों को कभी नहीं प्राप्त हो सकते हैं, उनको कष्ट करके जो अज्ञानी प्राणी सर्प के समान भयंकर उन भोगों के भोगने की अतिशय इच्छा करता है वह भय और दया से रहित होकर स्वयं मर करके भी व्यर्थ में दूसरों को मारने की इच्छा करता है । जिस जिस निकृष्ट कार्य की साधु जनों ने निन्दा की है, धिक्कार है कि वह दुर्बुद्धि उसी कार्य को चाहता है। ठीक है- जिनका मन काम और क्रोध आदिरूप महाग्रहों से पीडित है वे प्राणी कौन कौन-सा निन्द्य कार्य नहीं करते हैं ? अर्थात् सब ही निन्द्य कार्य को वे करते हैं ॥५१॥
Meaning : The man devoid of fear and compassion, pointlessly
wishes to kill all, and desires endlessly in this life
enjoyment of pleasures which are frightful, like the
serpent. Also, the overtly sensuous man cannot get the
divine pleasures in his next-life . Fie on
the wretch who desires for that which is censured by the
saints! It is right; which despicable activity is not possible
by the man whose mind is besieged by the great demons
of lust and anger? He engages mindlessly in all sorts of
deplorable activities.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- ये इन्द्रियविषय सर्प के समान भयंकर हैं- जिस प्रकार सर्प के काटने से प्राणी को संताप एवं मरण आदि का दुख प्राप्त होता है उसी प्रकार उन विषयभोगों के कारण विषयी जनों को भी संताप एवं मरण आदि का दुख सहना पडता है । फिर भी जो अज्ञानी उन विषयों के भोगने की इच्छा करते हैं उन्हें न तो अपने मरण का भय रहता है और न दूसरे प्राणियों का घात करने में दया भी उत्पन्न होती है। वे उन विषयों को प्राप्त करने के लिये स्वयं मर करके भी दूसरों के मारनेमें उद्यत होते हैं । अथवा वे उन विषयों में पडकर स्वयं तो मरते ही हैं- अपना सर्वनाश करते ही हैं, साथ ही दूसरों को भी उन विषयों में प्रवृत्त करके उनका भी घात करते हैं- सर्व नाश करते हैं । कामी जन की बुद्धि ऐसी भ्रष्ट हो जाती है कि जिससे वे उस असदाचरण में प्रवृत्त होते हैं जिसकी कि साधु जन सदा निन्दा किया करते हैं। ये काम और क्रोध आदि दुष्ट पिशाच के समान हैं। उनसे पीडित होकर प्राणी हेयादेय का विचार न करके जिस किसी भी कार्य को करता है ॥५१॥
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