श्वो यस्यानि यः स एव दिवसो ह्यस्तस्य संपद्यते
स्थैर्यं नाम न कस्यचिज्जगदिदं कालानिलोन्मूलितम् ।
भ्रातर्भान्तिमपास्य पश्यसि तरां प्रत्यक्षमक्ष्णोर्न किं
येनात्रैव मुहुर्मुहुर्बहुतरं बद्धस्पृहो भ्राम्यसि ॥५२॥
अन्वयार्थ : जो दिन जिस वस्तु के लिये कल था वह उसके लिये कल हो जाता है। यहां कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है, यह सब संसार कालरूप वायु से परिवर्तित किया जानेवाला है। हे भ्रात ! क्या तुम भ्रम को छोडकर आखों से प्रत्यक्ष नहीं देखते हो, जिससे कि इन नश्वर बाह्य वस्तुओं के विषय में ही बार बार इच्छा करके बहुत काल से परिभ्रमण करते हो? ॥५२॥
Meaning : The day which is seen by a man as ‘tomorrow’, becomes
‘yesterday’ for him. Nothing is permanent here; this
world is being blown incessantly by the wind of ‘time’
. O brother! Why don’t you give up illusion, and see
what is visible directly to your eyes? Like a slave of
desires, you repeatedly long for external, transient
objects and have consequently been wandering in this
world from a very long time.
भावार्थ