+ वर्तमान दु:खों का वर्णन -
संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेप्युद्वेगकारिण्यलं
दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम्।
तत्तावत्स्मर सस्मरस्मितशितापाङपैरनङगायुधै
र्वामानां हिमदग्धमुग्धतरुवद्यत्प्राप्तवान्निर्धन॥५३॥
अन्वयार्थ : जो संसार स्मरण मात्र से भी अतिशय संताप को उत्पन्न करनेवाला है उसके भीतर नरकादि दुर्गतियों में पडकर तूने जिन दुःखोंको सहन किया है वे तो यों ही रहें, अर्थात् उन परोक्ष दुःखों की चर्चा करना तो व्यर्थ है। किन्तु हे भव्य ! धन से रहित तूने काम के शस्त्रों (बाणों) के समान स्त्रियों के कामोत्पादक मन्द हास्ययुक्त तीक्ष्ण कटाक्षों से बिद्ध होकर बर्फ से जले हुए कोमल वृक्ष के समान जो दुःख प्राप्त किया है उसका तो भला स्मरण कर ॥५३॥
Meaning : Just the recollection of the worldly existence causes
extreme anguish; no point in discussing the sufferings
you have experienced (in the past) in worldly states of
existence, like the infernal being. O worthy soul! But
then you bear in mind the suffering, like ‘burning’ of a
young sapling bitten by frost, when here, as a pauper, you
were attacked by the arrows of Cupid in form of
voluptuous smiles and piercing glances of women.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अभिप्राय इसका यह है कि जो प्राणी सदा विषयभोगों में ही लिप्त रहते हैं उन्हें दोनों ही लोकों में दुख भोगना पडता है। इस लोक में तो उन्हें इसलिये दुख भोगना पड़ता है कि जिन सुन्दर स्त्रियों के मन्द हास्य एवं कटाक्षपात आदि के द्वारा वे काम से पीडित होने पर उन्हें प्राप्त करके अपनी वासना को पूर्ण करना चाहते हैं वे उपयुक्त धन आदि के न रहने से उन्हें प्राप्त होती नहीं हैं। फिर भी वे यों ही संतप्त होकर उसके लिये कष्टकारक निष्फल प्रयत्न करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त उस विषयतृष्णा से जो पाप का बन्ध होता है उसका उदय होने पर नरकादि दुर्गतियों में जाकर परलोक में भी वे दुःसह दुःखों को सहते हैं॥५३॥