
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार पागल या शराबी मनुष्य हिताहित के विवेक से रहित होकर स्वच्छंद प्रवृत्ति करता है तथा उसको अपने मरण का भी भय नहीं रहता है उसी प्रकार यह विषयोन्मत्त प्राणी भी अपने भले बुरे का ध्यान न रखकर जो हिंसादि कार्य आत्मा का अहित करनेवाले हैं उनमें तो प्रवृत्त होता है तथा जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदारसंतोष ( या पूर्णतया ब्रह्मचर्य) एवं अपरिग्रह आदि कार्य आत्मा का हित करनेवाले हैं उनसे विमुख रहता है । ऐसा करते हुए उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि अब मैं बूढा हो गया हूं, मुझे किसी भी समय मृत्यु अपना ग्रास बना सकती है,उसके पहिले क्यों न मैं कुछ आत्महित कर लूं। यही कारण है जो वह उस विषयतृष्णा के साथ मरण को प्राप्त होकर पुनः उस शरीर को धारण करता है जो स्वभावतः अपवित्र, रोगादि से ग्रसित एवं राग-द्वेषादि का कारण है । इस प्रकार से वह दूसरों के साथ स्वयं अपने आपको भी धोका देकर इस दुखमय संसार में बार बार परिभ्रमण करता रहता है ॥५४॥ |