+ समभाव धारण करने की प्रेरणा -
तत्कृत्यं किमिहेन्धनैरिव धनैराशग्निसंधुक्षणैः
संबन्धेन किमङ्ग शश्वदशुभैः संबन्धिभिर्बन्धुभिः।
किं मोहाहिमहाबिलेन सदृशा देहेन गेहेन वा
देहिन् याहि सुखाय ते समममुं मा गाः प्रमादं मुधा ॥६१॥
अन्वयार्थ : हे शरीरधारी प्राणी ! इन्धन के समान तृष्णारूप अग्नि को प्रज्वलित करने वाले धन से यहां तुझे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। पाप के कारणभूत सम्बधियों (नातेदारों) एवं अन्य बंधुओं (भ्राता आदि) के साथ संबंध रखने से तुझे क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं। मोहरूप सर्प के दीर्घ बिल (बांवी) के समान शरीर अथवा गृह से भी तुझे क्या प्रयोजन है? कुछ भी नहीं । ऐसा विचार कर हे भव्य जीव! तू सुख के निमित्त उस तृष्णा की शांति को प्राप्त हो,इसमें व्यर्थ प्रमाद न कर ॥६१॥
Meaning : O embodied being! Why worry about wealth that acts as
fuel for the fire of your cravings? Why worry about family
and other relations who constantly push you into
wickedness. What is the use of the body or the home
which are like the deep holes of the serpent of delusion
(moha)? For happiness, therefore, calm down your
cravings; no use being lax.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- सुख वास्तव में वही हो सकता है जिसमें आकुलता न हो । वह सुख धान के द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता है। कारण यह कि जितना जितना धन बढता है उतनी ही अधिक उत्तरोत्तर तृष्णा भी बढती जाती है, जैसे कि घी के डालने से उत्तरोत्तर अग्नि अधिक बढती है । इस प्रकार जहां तृष्णा है- आकुलता है- वहां भला सुख कहां से मिल सकता है ? इसके अतिरिक्त जितना कष्ट धन के उपार्जन में होता है उससे भी अधिक कष्ट उसकी रक्षा में होता है। यदि रक्षण करते हुए भी वह दुर्भाग्य से कदाचित् नष्ट हो गया तो फिर प्राणी के दुख का पारावार भी नहीं रहता है । इसीलिये तो उसे भी प्राण कहा जाता है । इतना ही नहीं, बहुत-से धनान्धा मनुष्य तो उस धनरूप प्राण की रक्षा करने में वास्तविक प्राण भी दे देते हैं। इससे निश्चित होता है कि धन वास्तव में सुख का कारण नहीं है । इसी प्रकार से माता, पिता, पुत्र एवं अन्य सम्बन्धी जनों का भी उस सुख का कारण नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि उनका संयोग होने पर यदि उनकी प्रवृति अनुकूल हुई तब तो उनमें अनुरागबुद्धि उत्पन्न होती है, जिससे कि उनके भरण-पोषण एवं रक्षण आदि की चिंता उदित होती है। और यदि उनकी प्रवृत्ति प्रतिकूल हुई तो इससे उद्वेग उत्पन्न होता है। ये दोनों (राग-द्वेष) ही कर्मबन्ध के कारण हैं । उक्त बन्धुवर्ग में भी मुख्यता स्त्री की होती है । कारण कि उसके ही निमित्त से कुटुम्ब की वृद्धि और तदर्थ धनार्जन की चिन्ता होती है इसीलिये तो यह कहने की आवश्यकता हई कि " स्त्रीतः चित्त निवृतं चेन्ननु वित्तं किमीहसे । मृतमण्डनकल्पो हि स्त्रीनिरीहे धनग्रहः॥" अर्थात् हे मन ! यदि तू स्त्री की ओर से हट गया है- तुझे स्त्री की चिंता नहीं रही है तो फिर तू धन की इच्छा क्यों करता है? अर्थात् फिर धन की इच्छा नहीं रहना चाहिये,क्योंकि स्त्री की इच्छा न रहने पर फिर धन का उपार्जन करना इस प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार से कि मृत शरीर का आभूषण आदि से श्रृंगार करना । सा. ध 6-36. इसी प्रकार जिस शरीर को अपना समझकर अभीष्ट आहार आदि के द्वारा पुष्ट किया जाता है वह भी सुख का कारण न होकर दुख का ही कारण होता है। कारण यह कि वह अनेक रोगोंका स्थान है और उसके रोगाक्रान्त होने पर जो वेदना उत्पन्न होती है उसके निवारण के लिये प्राणी विकल होकर प्रयत्न करता है। फिर भी कभी-न कभी वह छूटता ही है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त स्त्री एवं पुत्र आदि कौटुम्बिक सम्बन्ध भी इस शरीर के ही आश्रित हैं उनका सम्बन्ध कुछ अमूर्तिक आत्मा के साथ नहीं है। इस प्रकार उपर्यक्त सब ही दुःखों का मूल कारण वह शरीर ही ठहरता है। अब जब निरंतर साथ में रहनेवाला वह शरीर भी सुख का कारण नहीं है तब भला गृह आदि अन्य पदार्थ तो सुख के कारण हो ही कैसे सकते हैं ? इस प्रकार विचार करने पर सुख का कारण उस तृष्णा का अभाव (संतोष) ही सिद्ध होता है । वह यदि प्राप्त है तो धन के अधिक न होने पर भी प्राणी निराकुल रहकर सुख का अनुभव करता है, किन्तु उसके बिना अटूट सम्पत्ति के होने पर भी प्राणी निरंतर विकल रहता है ॥६१॥