+ विवाहादि में सहायक बन्धुजन ही वास्तविक शत्रु -
जन्मसंतानसंपादिविवाहादिविधायिनः ।
स्वाः परेऽस्य सकृत्प्राणहारिणो न परे परे ॥८४॥
अन्वयार्थ : जो कुटुम्बी जन जन्म-परंपरा (संसार) को बढाने वाले विवाहादि कार्य को करते हैं वे इस जीव के शत्रु हैं, दूसरे जो एक ही बार प्राणों का अपहरण करने वाले हैं वे यथार्थ में शत्रु नहीं हैं॥८४॥
Meaning : The relatives who perform activities, like arranging marriages, which extend worldly cycle of births and deaths are enemies of this soul. Others, who take away life only once, are not the real enemies.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जो अपना अहित करे वही वास्तव में शत्रु है- किन्तु जिसे प्राणी शत्रु मानता है वह सचमुच में शत्रु नहीं है । कारण यह कि यदि वह अधिक से अधिक अहित करेगा तो केवल एक बार प्राणों का वियोग कर सकता है, इससे अधिक वह और कुछ भी नहीं कर सकता है । किन्तु जो कुटुम्बीजन विवाहादि को करके प्राणी को संसारवृद्धि के कारणों में प्रवृत्त करते हैं वास्तविक शत्रु तो वे ही हैं, क्योंकि उनके द्वारा अनेक भवों का घात होने वाला है- राग-द्वेषादि की वृद्धि के कारण होने से वे अनेक भवों को दुखमय बनानेवाले हैं ॥८४॥