
भावार्थ :
विशेषार्थ- जो अपना अहित करे वही वास्तव में शत्रु है- किन्तु जिसे प्राणी शत्रु मानता है वह सचमुच में शत्रु नहीं है । कारण यह कि यदि वह अधिक से अधिक अहित करेगा तो केवल एक बार प्राणों का वियोग कर सकता है, इससे अधिक वह और कुछ भी नहीं कर सकता है । किन्तु जो कुटुम्बीजन विवाहादि को करके प्राणी को संसारवृद्धि के कारणों में प्रवृत्त करते हैं वास्तविक शत्रु तो वे ही हैं, क्योंकि उनके द्वारा अनेक भवों का घात होने वाला है- राग-द्वेषादि की वृद्धि के कारण होने से वे अनेक भवों को दुखमय बनानेवाले हैं ॥८४॥ |