+ तृष्णारूपी अग्नि में जलने पर शांति की भ्रान्ति -
धनरन्धनसंभारं प्रक्षिप्याशाहुताशने ।
ज्वलन्तं मन्यते भ्रान्तः शान्तं संघक्षणक्षणे ॥८५॥
अन्वयार्थ : आशा (विषयतृष्णा) रूप अग्नि में धनरूप इन्धन के समूह को डालकर भ्रान्ति को प्राप्त हुआ प्राणी उस जलती हुई आशारूप अग्नि को जलने के समय में शान्त मानता है ॥८५॥
Meaning : The deluded man gets a sense of satisfaction while he rages the fire of his cravings by feeding it with the faggot of wealth.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार अग्नि में इन्धन के डालने से वह उत्तरोत्तर बढती ही है- कम नहीं होती- उसी प्रकार अधिक अधिक धन के संचय से यह विषयतृष्णा भी उत्तरोत्तर बढती ही है- कम नहीं होती । अग्नि जब इन्धन को पाकर अधिक भडक उठती हैं तब मूर्ख से मूर्ख प्राणी भी उसे शान्त नहीं मानता। परन्तु आश्चर्य है कि विषयसामग्रीरूप इन्धन को पाकर उस तृष्णारूप अग्नि के भडक उठने पर भी यह प्राणी उसे (विषयतृष्णाग्नि को) और उसमें जलते हुए अपने को भी शान्त मानता है । यह उसकी बडी अज्ञानता है॥८५॥