+ वृद्धावस्था से आत्महित की प्रेरणा -
अश्रोत्रीव तिरस्कृतापरतिरस्कारश्रुतीनां श्रुतिः
चक्षुर्वीक्षितुमक्षमं तव दशां दूष्यामिवान्ध्यं गतम् । भीत्येवाभिमुखान्तकादतितरां कायोऽप्ययं कम्पते
निष्कम्पस्त्वमहो प्रदीप्तमवनेऽप्यासे (स्से) जराजर्जरे ॥९१॥
अन्वयार्थ : हे वृद्ध ! तेरे कान दूसरों के निन्दावाक्यों को नहीं सुनने की इच्छा से ही मानो तिरस्कृत अर्थात् नष्ट हो गये- बहरे हो गये । नेत्र मानो तेरी घृणित अवस्था को देखने में असमर्थ होकर ही अन्धेपन को प्राप्त हो गये हैं । यह शरीर भी तेरे सन्मुख आने वाले यम (मृत्यु) से मानो भयभीत हो करके ही अतिशय कांप रहा है। फिर भी आश्चर्य है कि तू जलते हुए घर के समान उस वृद्धत्व से शिथिल हुए शरीर में निश्चल रह रहा है॥९१॥
Meaning : O old-man! Your ears have turned deaf as if not wishing to hear the offending words of others. Your eyes have turned blind as if not able to see your disgusting condition. Your body, too, is trembling intensely as if out of fear of the approaching death. It is a great surprise that in this old body that is like the house on fire, you continue to live unruffled.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- वृद्धावस्था में कान बहरे हो जाते हैं,आंखें अन्धी हो जाती हैं,और शरीर कांपने लगता है । यह शरीर की अवस्था बुढापे में स्वभावतः हो जाया करती है। इसपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि बुढापे में प्रायः घर व बाहिर के सब ही जन तिरस्कार करने लगते हैं, उन निन्दावाक्यों को न सुनने की ही इच्छा से मानो वृद्ध के कान बहरे हो जाते हैं। इसी प्रकार उस अवस्था में मुंह से लार बहने लगती है,कपडों में मल-मूत्रादि हो जाता है, तथा निरन्तर खांसी व कफ आदि बना रहता है । इस प्रकार की घृणाजनक अवस्था को न देख सकने के ही कारण मानो वृद्ध की आंखें अन्धी हो जाती हैं । वह बुढापा क्या है मरण की निकटता की सूचना ही है, उसी के भय से मानो वृद्ध का शरीर कांपने लगता है । वह वृद्धावस्था का शरीर आग से जलते हुए महल के समान नष्ट हो जाने वाला है। फिर भी आश्चर्य है कि जब घर में आग लग जाती है तब उसके भीतर स्थित प्राणी व्याकुल होकर बाहिर निकलने का प्रयत्न करते हैं; परन्तु वह बेसुध हुआ वृद्ध उस नष्ट प्राय शरीर से मोह को नहीं छोडता और इसीलिये वह परभव को सुखमय बनाने के लिये कुछ प्रयत्न भी नहीं करता है ॥९१॥