+ तप करने में ज्ञान की महिमा -
अमी प्ररूढवैराग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत्
तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभवम् ॥११६॥
अन्वयार्थ : जिनके हृदय में विरक्ति उत्पन्न हुई है वे शरीर की रक्षा करके जो चिरकाल तक तपश्चरण करते हैं वह निश्चय से ज्ञान का ही प्रभाव है, ऐसा निश्चित प्रतीत होता है ॥११६॥
Meaning : Certainly, it is the magnificence of knowledge (jñāna) which develops, in the hearts of the ascetics, indifference to worldly existence – vairāgya – and they go on to perform austerities (tapa), while protecting their bodies, for a very long time.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- लोक में प्रायः यह देखा जाता है कि जो जिसकी ओर से विरक्त या उदासीन होता है वह उसका रक्षण नहीं करता है । परन्तु विवेकी जन शरीर की ओर से उदासीन (अनुरागरहित) हो करके भी यथायोग्य प्राप्त हुए आहार के द्वारा उसका रक्षण करते हैं। इसका कारण यह है कि वे यह जानते हैं कि इस मनुष्यशरीर से हमें अपना प्रयोजन (मुक्ति) सिद्ध करना है, हमने यदि इसकी रक्षा न की तो यह असमय में ही नष्ट हो जावेगा और तब ऐसी अवस्था में हम उससे अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकेंगे। इसका भी कारण यह है कि यदि यह मनुष्य पर्याय यों ही नष्ट हो गई तो फिर देवादि किसी दूसरी गति में तप का आचरण संभव नहीं है और वह मनुष्य पर्याय कुछ बार बार प्राप्त होती नहीं है। इस प्रकार की विवेकबुद्धि के रहने से ही साधुजन उस शरीर का रक्षण करते हैं, अन्यथा वे उसकी रक्षा न भी करते । हां, यह अवश्य है कि वह शरीर किसी असाध्य रोगादि से आक्रांत होकर यदि अभीष्ट की सिद्धि में ही बाधक बन जाता है तो फिर वे उसकी रक्षा नहीं करते हैं, बल्कि उसे सल्लेखनापूर्वक छोडकर धर्म की ही रक्षा करते हैं ॥११६॥