+ अशुभ और शुभ छोड़ने का क्रम -
अशुभाच्छुभमायातः शुद्धः स्यादयमागमात् ।
रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गमः ॥१२२॥
अन्वयार्थ : यह आराधक भव्यजीव आगमज्ञान के प्रभाव से अशुभस्वरूप असंयम अवस्था से शुभरूप संयम अवस्था को प्राप्त हुआ समस्त कर्ममल से रहित होकर शुद्ध हो जाता है । ठीक है- सूर्य जबतक सन्ध्या (प्रभातकाल) को नहीं प्राप्त होता है तबतक वह अन्धकार को नष्ट नहीं करता है ॥१२२॥
Meaning : Such accomplished, worthy soul, due to the effect of the scriptural knowledge, moves from the stage of disposition that is inauspicious (aśubha, marked by asaÉyama) to auspicious (śubha, marked by saÉyama) and finally, void of all karmic dirt, to pure (śuddha). It is right; as there is no trace of darkness in the sun till dusk, the ascetic who has reached the pure (śuddha) stage, has no trace of inauspicious or even auspicious dispositions.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार सूर्य प्रथमतः रात्रि अन्धकार से निकलकर प्रभातकाल को प्राप्त करता है और तब फिर कहीं वह अन्धकार से रहित होता है, उसी प्रकार आराधक भी पहिले रात्रिगत अन्धकार के समान अशुभ से निकलकर प्रभात के समान शुभ (सरागसंयम) को प्राप्त करता है और तब फिर कहीं कर्मकलंकरूप अन्धकार से रहित होता है। अभिप्राय यह है कि प्राणी का आचरण पूर्व में प्रायः असंयमप्रधान रहता है, तत्पश्चात् वह यथाशक्ति असंयममय प्रवृत्ति को छोडकर संयम के मार्ग में प्रवृत्त होता है। यह हुई उसकी अशुभ से शुभ में प्रवृत्ति । यद्यपि कर्मबन्ध (पराधीनता) की अपेक्षा इन दोनों में कोई विशेष भेद नहीं है, फिर भी जहां अशुभ से पाप कर्म का बन्ध होता है वहां शुभ से पुण्यकर्म का बन्ध होता है। इस प्रकार से उसे शुद्ध होने की साधनसामग्री उपलब्ध होने लगती है, जो कि पापबन्ध के होने पर असम्भव ही रहती है। उदाहरण के रूप में जैसे प्रभात-काल में यद्यपि रात्रिगत अन्धकार की सघनता नहीं होती है, फिर भी कुछ अंश में तब भी अन्धकार रहता है, पूर्ण अन्धकार का विनाश तो दिन में ही हो पाता है । इस प्रकार वह शुभ में स्थित रहकर अन्त में अपने शुद्ध स्वरूप को भी प्राप्त कर लेता है ॥१२२॥