+ अशुभराग में दोष की अधिकता -
विहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृस्य पुनस्तमः ।
रविवद्रागमागच्छन् पातालतलमृच्छति ॥१२४॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार सूर्य फैले हुए प्रकाश को छोडकर और अन्धकार को आगे करके जब राग (लालिमा) को प्राप्त होता है तब वह पाताल को जाता है- अस्त हो जाता है, उसी प्रकार जो प्राणी वस्तुस्वरूप को प्रकाशित करनेवाले ज्ञानरूप प्रकाश को छोडकर अज्ञान को स्वीकार करता हुआ राग (विषयवांछा) को प्राप्त होता है वह पातालतल को- नरकादि दुर्गति को- प्राप्त होता है ॥१२४॥
Meaning : The sun, when it leaves the expanse of bright light and embraces the red tinge of darkness, falls into the underworld, i.e., it vanishes. In the same way, the man who leaves the light of knowledge that illumines the nature of substances and embraces ignorance, falls into the underworld, i.e., the infernal state of existence.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- सूर्य जिस प्रकार प्रभात समय में लालिमा को धारण करता है उसी प्रकार वह सन्ध्या समय में भी उक्त लालिमा को धारण करता है । परन्तु जहां प्रभातकालीन लालिमा उसके अभ्युदय (उदय या वृद्धि ) का कारण होती है वहां वह सन्ध्या समय की लालिमा उसके अधःपतन (अस्तगमन) का कारण होती है । ठीक इसी प्रकार से जो प्राणी अज्ञान को छोडकर तप एवं श्रुत आदि के विषय में राग को प्राप्त होता है वह राग उसके अभ्युदय-स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति- का कारण होता है, किन्तु जो प्राणी विवेक को नष्ट करके अज्ञानभाव को प्राप्त होता हुआ विषयानुराग को धारण करता है वह अनुराग उसके अधःपतन का- नरक-निगोदादि की प्राप्ति का- कारण होता है। इस प्रकार तपश्रुतानुराग और विषयानुराग इन दोनों में अनुरागरूप से समानता के होने पर भी महान् अन्तर है- एक ऊर्ध्वगमन का कारण है और दूसरा अधोगमन का कारण है ॥१२४॥