
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस पथिक के पास सुपरिचित मार्गदर्शक हो, मित्र साथ में हो, नाश्ता पास में हो, सवारी उत्तम हो, बीच में ठहरने का स्थान सुरक्षित हो, रक्षक साथ में हो; तथा मार्ग सरल (सीधा), जल से सहित एवं छायायुक्त सघन वृक्षों से व्याप्त हो; वह पथिक जिस प्रकार नव विघ्न-बाधाओं से रहित होकर निश्चित ही अपने अभीष्ट स्थान को पहुंच जाता है उसी प्रकार जिस मुक्ति-पुरी के पथिक के पास ज्ञान मार्गदर्शक के समान है, पापवृत्ति से बचाने वाली लज्जा हितैषी मित्र के समान सदा साथ में रहनेवाली है, पाथेय का काम करनेवाला तप विद्यमान है, सवारी का काम करनेवाला चारित्र है, स्वर्ग पडाव के समान हैं, उत्तम क्षमा आदि गुण राग-द्वेषादिरूप चोरों से रक्षा करनेवाले हैं, तथा रत्नत्रय स्वरूप मार्ग सरल (मन, वचन एवं काय की कुटिलता से रहित), शान्तिरूप जल से परिपूर्ण एवं दयाभावनारूप छाया से सहित है; वह मुक्ति का पथिक साधु सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं से रहित होता हुआ अवश्य ही अपने अभीष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है। अभिप्राय यह है कि जो मुनि सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाओं का आराधान करता है वह निःसन्देह मोक्ष को प्राप्त करता है। प्रस्तुत श्लोक में जिस प्रकार ज्ञान,तप और चारित्र इन तीन आराधनाओं का पृथक् पृथक् उल्लेख किया है वैसा सम्यग्दर्शन आराधना का पृथक् उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु उसे ज्ञानाराधना के अन्तर्गत ग्रहण किया गया है । इसका कारण सम्यग्ज्ञान का उक्त सम्यग्दर्शन के साथ अविनाभाव है- उसका सम्यग्दर्शन के विना आविर्भूत नहीं होना है। इसीलिये उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया है॥१२५॥ |