
भावार्थ :
विशेषार्थ- पूर्व के श्लोक में यह बतलाया था कि जो सम्यग्दर्शनादि आराधनाओं का आराधान करता है उसे मुक्ति पद की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं उपस्थित हो सकती है । इस पर यह शंका हो सकती थी ऐसी कौन-सी वे बाधायें हैं जिनकी कि मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुए साधु के लिये सम्भावना की जा सकती है ? इस शंका के निराकरणस्वरूप ही यहां बतलाना चाहते हैं कि उक्त साधु के मार्ग में स्त्री आदि के द्वारा बाधा उपस्थित की जा सकती है, अतएव साधुजन को उनकी ओर से विमुख रहना चाहिये । कारण यह कि ये सर्प की अपेक्षा भी अधिक कष्ट दे सकती हैं । लोक में सर्पों की एक दृष्टिविष जाति प्रसिद्ध है । इस जाति का सर्प जिसकी ओर केवल नेत्र से ही देखता है वह विष से संतप्त हो जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि उक्त जाति के सर्पों को दृष्टिविष न कहकर वास्तव में उन स्त्रियों को दृष्टिविष कहना चाहिये जिनकी कि अर्ध दृष्टि के (कटाक्ष के) पडने मात्र से ही प्राणी विष से व्याप्त-काम से संतप्त हो उठता है। जो साधु उनकी ओर से विरक्त रहना चाहता है उसे वे अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अनेक प्रकार की हाव-भाव एवं विलासादिरूप चेष्टाए करती हैं। इसलिये यहां यह प्रेरणा की गई है कि जो भव्य प्राणी अपना हित चाहते हैं वे ऐसी स्त्रियों के समागम से दूर रहें ॥१२६॥ |