+ स्त्रियों का महाविषमय स्वरूप -
मिथ्या दृष्टिविषान् वदन्ति फणिनो दृष्टं तदा सुस्फुटम् यासामर्धविलोकनैरपि जगद्दम् दह्यते सर्वतः ।
तास्त्वय्येव विलोमवर्तिनि भृशं भ्राम्यन्ति बद्धक्रुधः
स्त्रीरूपेण विषं हि केवलमतस्तद्गोचरं मा स्म गाः ॥१२६॥
अन्वयार्थ : व्यवहारी जन जो सर्पों को दृष्टिविष कहते हैं वह असत्य हैं, क्योंकि,वह दृष्टिविषत्व तो उन स्त्रियों में स्पष्टतया देखा जाता है जिनके अर्धविलोकन रूप कटाक्षों के द्वारा ही संसार (प्राणी) सब ओर से अतिशय संतप्त होता है । हे साधो ! तू जो उनके विरुद्ध आचरण कर रहा है सो वे तेरे ही विषय में अतिशय क्रोध को प्राप्त होकर इधर उधर घूम रही हैं । वे स्त्री के रूप में केवल विष ही हैं। इसीलिये तू उनका विषय न बन॥१२६॥
Meaning : People call certain kinds of cobras that eject venom into the eyes of the onlooker, ‘dÃÈÇiviÈa’; this is not appropriate. Such ‘dÃÈÇiviÈa’ is clearly seen in women whose seductive half-glances burn down the victim (the worldly man) from all sides. O ascetic! As you have turned away from them, you have made them extremely angry and they are roaming near you. They are just venom in form of women; do not fall prey to them.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- पूर्व के श्लोक में यह बतलाया था कि जो सम्यग्दर्शनादि आराधनाओं का आराधान करता है उसे मुक्ति पद की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं उपस्थित हो सकती है । इस पर यह शंका हो सकती थी ऐसी कौन-सी वे बाधायें हैं जिनकी कि मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुए साधु के लिये सम्भावना की जा सकती है ? इस शंका के निराकरणस्वरूप ही यहां बतलाना चाहते हैं कि उक्त साधु के मार्ग में स्त्री आदि के द्वारा बाधा उपस्थित की जा सकती है, अतएव साधुजन को उनकी ओर से विमुख रहना चाहिये । कारण यह कि ये सर्प की अपेक्षा भी अधिक कष्ट दे सकती हैं । लोक में सर्पों की एक दृष्टिविष जाति प्रसिद्ध है । इस जाति का सर्प जिसकी ओर केवल नेत्र से ही देखता है वह विष से संतप्त हो जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि उक्त जाति के सर्पों को दृष्टिविष न कहकर वास्तव में उन स्त्रियों को दृष्टिविष कहना चाहिये जिनकी कि अर्ध दृष्टि के (कटाक्ष के) पडने मात्र से ही प्राणी विष से व्याप्त-काम से संतप्त हो उठता है। जो साधु उनकी ओर से विरक्त रहना चाहता है उसे वे अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अनेक प्रकार की हाव-भाव एवं विलासादिरूप चेष्टाए करती हैं। इसलिये यहां यह प्रेरणा की गई है कि जो भव्य प्राणी अपना हित चाहते हैं वे ऐसी स्त्रियों के समागम से दूर रहें ॥१२६॥