
भावार्थ :
विशेषार्थ- पूर्व श्लोक में स्त्रियों को जो दृष्टिविष सर्प की अपेक्षा भी अधिक दुखप्रद बतलाया है उसी का स्पष्टीकरण प्रस्तुत श्लोक के द्वारा किया जा रहा है । यथा- सर्प जब किसी के द्वारा बाधा को प्राप्त होता है तब ही वह क्रुद्ध होकर किसी विशेष काल और किसी विशेष देश में ही काटता है तथा उसके विष को नष्ट करने में समर्थ ऐसी कितनी ही औषधियां भी पायी जाती हैं । फिर भी यदि वह अधिक से अधिक कष्ट दे सकता है तो केवल एक बार मरण का ही कष्ट दे सकता है। परंतु स्त्रियां जिसके ऊपर क्रुद्ध हो जाती हैं उसे तो वे विषप्रयोग आदि के उपायों से मारती ही हैं, किन्तु जिसके ऊपर वे प्रसन्न रहती हैं उसे भी मारती हैं- कामासक्त करके इस लोक में तो रुग्णता व बन्दीगृह आदि के कष्ट को दिलाती हैं तथा परलोक में नरकादि दुर्गतियों के दुख के भोगने में निमित्त होती हैं । साधारण जन की तो बात ही क्या है, किन्तु वे बडे बडे तपस्वियों को भी भ्रष्ट कर देती हैं । इसके अतिरिक्त दृष्टिविष सर्प जिसकी ओर देखता है उसे ही वह विष से संतप्त करता है, किन्तु वे स्त्रियां जिसकी ओर स्वयं दृष्टिपात (कटाक्षपात) करती हैं उसे काम से संतप्त करती हैं और जिसकी ओर वे न भी देखें, पर जो उनकी ओर देखता है उसे भी वे काम से संतप्त करती हैं । इसके अतिरिक्त सर्प के विष से मूर्छित हुए प्राणी के विष को दूर करनेवाली औषधियां भी उपलब्ध हैं, पर स्त्रीविष से मूर्छित (कामासक्त) प्राणी को उससे मुक्त कराने वाली कोई भी औषधि उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार जब स्त्रियां सर्प से भी अधिक दुख देने वाली हैं तब आत्महितैषियों को उनकी ओर से विरक्त ही रहना चाहिये ॥१२७॥ |