+ अयाचक वृत्ति धारण करने की प्रेरणा -
गेहं गुहाः परिदधासि दिशो विहायः
संव्यानमिष्टमशनं तपसोऽभिवृद्धिः।
प्राप्तागमार्थ तव सन्ति गुणा: कलत्र
मप्रार्थ्यवृत्तिरसि यासि वृथैव याञ्चाम् ॥१५१॥
अन्वयार्थ : हे आगम के रहस्य के जानकार साधु ! तेरे लिये गुफायें ही घर हैं, दिशायें एवं आकाश ही तेरा वस्त्र है उसे तू पहिन, तप की वृद्धि ही तेरा इष्ट भोजन है, तथा स्त्री के स्थान में तू सम्यग्दर्शनादि गुणों से अनुराग कर । इस प्रकार तुझे याचना के योग्य कुछ भी नहीं है । अतएव तू वृथा ही याचनाजनित दीनता को न प्राप्त हो ॥१५१॥
Meaning : O knower of the essence of the Scripture! Caves are your residences; the directions and the sky clothe you; advancement in austerity is your pleasing food; and qualities like right faith (samyagdarśana), rather than women, are your charms. Thus, you have nothing to plead for. Do not unnecessarily become miserable by pleading for favours.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- याचना करने से स्वाभिमान नष्ट होकर मनुष्य में दीनता उत्पन्न हुए यह बतलाया है कि जिन पदार्थों की दूसरों से याचना की जाती है वे तेरे पास स्वाभाविक हैं। यथा- मनुष्य दूसरो से अर्थ (धन) की याचना करता है, सो तेरे लिये आगम का अर्थ (रहस्य) प्राप्त है ही। यह उस लौकिक घन से अधिक कल्याणकारी है । इसके अतिरिक्त तुझे रहने के लिये गुफायें विद्यमान हैं,अतएव घर की याचना करने की आवश्यकता नहीं रहती। दिशायें ही तेरे लिये वस्त्र हैं। लौकिक वस्त्र तो चिन्ता का कारण है, अतएव उसको छोडकर दिगम्बर रह और निश्चिन्त होकर तप की वृद्धि कर। यह तप की वृद्धि तेरे अभीष्ट भोजन का काम करेगी। स्त्री के स्थान में तेरे पास उत्तमक्षमा आदि गुण विद्यमान हैं, तू इनसे अधिक से अधिक अनुराग कर । इस प्रकार तेरे पास सब आवश्यक सामग्री विद्यमान है, अतएव दीन बनकर व्यर्थ में किसी से याचना मत कर । याचना करने से मनुष्य श्रीहीन होकर निर्लज्ज बन जाता है, उसकी बुद्धि और धैर्य नष्ट हो जाता है, तथा अपयश बढता है । किसी ने यह ठीक कहा है-

देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पञ्चदेवताः ।

मुखान्निर्गत्य गच्छन्ति श्री-ह्री-धी-धृति-कीर्तयः ॥

अर्थात् ' देहि (मुझे कुछ दो)' इस वचन को सुनकर शोभा, लज्जा, बुद्धि, धैर्य और कीर्ति ये शरीररूप भवन में रहनेवाले पांच देवता 'देहि' इस वचन के साथ ही मुख से निकल कर चले जाते हैं। अतएव ऐसी याचना का परित्याग करना ही योग्य है ॥१५१॥