
भावार्थ :
विशेषार्थ- दान के निमित्त तीन हैं- दाता, पात्र और देय । सो यहां दाता तो गृहस्थ, पात्र मुनि और देय धन आहार मात्र है । जो मुनि उस आहार को ग्रहण करते हैं वे भी केवल इस विचार से करते हैं कि इससे शरीर स्थिर रहेगा, जिससे कि हम तपश्चरण आदि करके आत्महित के साथ ही सदुपदेशादि के द्वारा दूसरों का भी हित कर सकेंगे। इतने पर भी जो स्वाभिमानी विद्वान् हैं वे उस आहार मात्र के ग्रहण करने में भी लज्जित होते हैं। यह है सत्पात्र और निरभिमानी सद्गृहस्थ दाताओं की स्थिति । इसके विपरीत जो दाता उस आहारदान के निमित्त से यह समझता है कि मैं ही उत्कृष्ट दाता हूं, अन्य दाता निकृष्ट हैं, तथा मैं इन साधुओं पर उपकार कर रहा हूं; वह दाता निन्दनीय है। इसी प्रकार जो साधु भी उस आहार के निमित्त से किसी दाता की प्रशंसा करता है कि इसने उत्तम आहार दिया है, तथा अन्य दाता की निन्दा करता है कि इसने निष्कृष्ट आहार दिया है, वह भी जो इस प्रकार से राग व द्वेष के वशीभूत होता है उसका कारण इस कलिकाल के प्रभाव को ही समझना चाहिये । अन्यथा पूर्व में जहां दाता यह समझता था कि सत्पात्र को दान देना यह गृहस्थ का आवश्यक कर्तव्य है तथा इस गृहस्थ जीवन की सफलता भी इसी में है, वह सुअवसर मुझे पुण्योदय से ही प्राप्त हुआ है आदि; वहां वे सत्पात्र (साधु) भी दाता के द्वारा जैसा कुछ भी रूखा-सूखा भोजन प्राप्त होता था उसी में संतुष्ट होते थे- दाता के प्रति कभी भी राग-द्वेष नहीं करते थे। वे दाता और पात्र आज नहीं उपलब्ध होते हैं। इससे यही निश्चय होता है कि दाता और पात्रों की जो वर्तमान में यह दुरवस्था हो रही है वह कलिकाल के ही प्रभाव से हो रही है॥१५९॥ |