+ कलि-काल का चक्रवर्तित्व -
दातारो गृहचारिणः किल धनं देयं तदत्राशनं
गृण्हन्तः स्वशरीरतोऽपि विरताः सर्वोपकारेच्छया ।
लज्जैषैव मनस्विनां ननु पुनः कृत्वा कथं तत्फलं
रागद्वेषवशीभवन्ति तदिदं चक्रेश्वरत्वं कलेः ॥१५९॥
अन्वयार्थ : दाता तो गृहस्थ हैं और वह देय धन (देने योग्य धन) यहां पात्र के लिये भक्तिपूर्वक दिया जाने वाला भोजन है । सबके उपकार की इच्छा से जो उस आहाररूप धन को ग्रहण करने वाले साधु हैं वे अपने शरीर से भी विरत (निःस्पृह) होते हैं । यह आहारग्रहण की इच्छा भी उन स्वाभिमानियों के लिये लज्जा का ही कारण होती है। फिर भला उस आहार को निमित्त बना करके वे (साधु और दाता) राग-द्वेष के वशीभूत कैसे होते हैं ? वह इस पंचम काल का ही प्रभाव है ॥१५९॥
Meaning : The giver of the gift is the householder and the wealth that he offers with devotion to the worthy recipient is the food. The ascetic, who has the well-being of all in mind and who is unconcerned about own body, accepts this wealth of food. Even this desire for food causes embarrassment to the self-respecting ascetics. How, then, the givers (the householders) and the recipients (the ascetics) fall prey to attachment and aversion in respect of giving and taking of food? Surely, this is the ill-effect of the kali age (the fifth period, called duÈamā).

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- दान के निमित्त तीन हैं- दाता, पात्र और देय । सो यहां दाता तो गृहस्थ, पात्र मुनि और देय धन आहार मात्र है । जो मुनि उस आहार को ग्रहण करते हैं वे भी केवल इस विचार से करते हैं कि इससे शरीर स्थिर रहेगा, जिससे कि हम तपश्चरण आदि करके आत्महित के साथ ही सदुपदेशादि के द्वारा दूसरों का भी हित कर सकेंगे। इतने पर भी जो स्वाभिमानी विद्वान् हैं वे उस आहार मात्र के ग्रहण करने में भी लज्जित होते हैं। यह है सत्पात्र और निरभिमानी सद्गृहस्थ दाताओं की स्थिति । इसके विपरीत जो दाता उस आहारदान के निमित्त से यह समझता है कि मैं ही उत्कृष्ट दाता हूं, अन्य दाता निकृष्ट हैं, तथा मैं इन साधुओं पर उपकार कर रहा हूं; वह दाता निन्दनीय है। इसी प्रकार जो साधु भी उस आहार के निमित्त से किसी दाता की प्रशंसा करता है कि इसने उत्तम आहार दिया है, तथा अन्य दाता की निन्दा करता है कि इसने निष्कृष्ट आहार दिया है, वह भी जो इस प्रकार से राग व द्वेष के वशीभूत होता है उसका कारण इस कलिकाल के प्रभाव को ही समझना चाहिये । अन्यथा पूर्व में जहां दाता यह समझता था कि सत्पात्र को दान देना यह गृहस्थ का आवश्यक कर्तव्य है तथा इस गृहस्थ जीवन की सफलता भी इसी में है, वह सुअवसर मुझे पुण्योदय से ही प्राप्त हुआ है आदि; वहां वे सत्पात्र (साधु) भी दाता के द्वारा जैसा कुछ भी रूखा-सूखा भोजन प्राप्त होता था उसी में संतुष्ट होते थे- दाता के प्रति कभी भी राग-द्वेष नहीं करते थे। वे दाता और पात्र आज नहीं उपलब्ध होते हैं। इससे यही निश्चय होता है कि दाता और पात्रों की जो वर्तमान में यह दुरवस्था हो रही है वह कलिकाल के ही प्रभाव से हो रही है॥१५९॥