
भावार्थ :
विशेषार्थ- जीव स्वभाव से अनन्तज्ञान एवं अनन्त सुख से संपन्न है । किन्तु कर्म का आवरण रहने से वह प्रगट नहीं है- लुप्त हो रहा है । जो प्राणी अज्ञानता से अपनी अनन्त शक्ति का अनुभव नहीं करते हैं वे ही उस कर्म के द्वारा निर्मित तुच्छ इन्द्रियसुखों (आहारादिजनित) से सन्तुष्ट होते हैं । इसमें वे अपनी दीनता को प्रगट करते हुए लज्जित भी नहीं होते हैं । ऐसे इन्द्रियलोलुपी जीव उपवास आदि के कष्ट को सहकर जैसा कुछ रूखासूखा भोजन प्राप्त होता है उसमें सन्तुष्ट होते हैं। यदि वे अपनी स्वाभाविक आत्मशक्ति का अनुभव करें तो ऐसे दीनतापूर्ण आचरण में उन्हें संतोष के स्थान में लज्जा का ही अनुभव होगा। उदाहरणार्थ यदि कोई बलवान् मनुष्य किसी अन्य व्यक्ति की सम्पत्ति आदि का अपहरण करके उसको अपने आधीन रखता हुआ अपनी ही इच्छा से भोजन आदि देता है तो आधीनस्थ मनुष्य यदि कायर है तब तो वह अपना सर्वस्व खो करके भी उसके द्वारा कुछ भी रूखा-सूखा भोजन आदि दिया जा रहा है उसी पर सन्तुष्ट होता है और किसी प्रकार की लज्जा का अनुभव नहीं करता है । किन्तु जिसे अपनी शक्ति का अभिमान है वह अन्य के द्वारा दिये जाने वाले भोजन आदि के लिये लज्जित होता है तथा उस अवसर की खोज में रहता है कि जब कि उस अपने शत्रु को नष्ट करके अपनी हरी गई सम्पत्ति को वापिस प्राप्त कर ले । ठीक इसी प्रकार से जो अविवेकी प्राणी हैं वे कर्मरूप शत्रु के द्वारा जो अपनी स्वाभाविक सम्पत्ति (अनन्त ज्ञानादि) हरी गई है उसे प्राप्त करनेका उद्योग नहीं करते, बल्कि उक्त कर्म के द्वारा दिये जाने वाले तुच्छ एवं क्षणिक इन्द्रिय सुख में ही सन्तुष्ट होते हैं। किन्तु जो विवेकी जीव हैं वे उस कर्म- शत्रु के द्वारा लुप्त की गई अपनी उस स्वाभाविक सम्पत्ति को प्राप्त करने का निरंतर उद्योग करते हैं और वह जब तक उन्हें प्राप्त नहीं होती है तब तक उसकी प्राप्ति के साधनभूत शरीर को स्थिर रखने के लिये उक्त कर्म के निमित्त से प्राप्त होने वाले भोजन को ग्रहण तो करते हैं, किन्तु उसे स्वाभिमानपूर्वक लज्जा के साथ ही ग्रहण करते हैं, न कि निर्लज्ज व दीन बनकर । इस प्रकार से अन्त में वे अपनी उस स्वाभाविक सम्पत्ति (अनन्तचतुष्टय) को अवश्य प्राप्त कर लेते हैं ॥१६०॥ |