+ इन्द्रिय-सुख के लिए भी धैर्य की आवश्यकता -
तृष्णा भोगेषु चेद्भिक्षो सहस्वाल्पं स्वरेव ते ।
प्रतीक्ष्य पाकं कि पीत्वा पेयं भुक्तिं विनाशये:॥१६१॥
अन्वयार्थ : हे साधो! यदि तुझे भोगों के विषय में अभिलाषा है तो तू कुछ समय के लिये व्रतादि के आचरण से होने वाले थोडे-से कष्ट को सहन कर । ऐसा करने से तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा, वे भोग वहां पर ही हैं । तू पाक की प्रतीक्षा करता हुआ पानी आदि को पी करके क्यों भोजन को नष्ट करता है ? ॥१६१॥
Meaning : O ascetic! If you are seeking sensual-enjoyment, endure, for a while, little pain due to observance of vows, etc. These enjoyments will be yours in heaven. While the food is being cooked, why do you mar your appetite by drinking water, etc.?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जो साधु बाह्य विषयभोगों की अभिलाषा करता है उसको लक्ष्य में रखकर यहां यह कहा गया है कि यदि तुझे विषयभोगों की ही अभिलाषा है तो तू कुछ समय के लिये व्रतादि के आचरण से जो थोडा-सा कष्ट होने वाला है उसे स्थिरता से सहन कर । कारण यह कि ऐसा करने से तुझे तेरी ही इच्छा के अनुसार स्वर्ग में उन विषयभोगों की प्राप्ति हो जावेगी। फिर तू सागरोपम काल तक उस विषयसुख का अनुभव करते रहना। और यदि तू ऐसा नहीं करता है तो फिर तेरी ऐसी अवस्था होगी जैसी कि अवस्था उस मनुष्य की होती है जो कि थोडे-से काल के लिये भोजन के परिपाक की प्रतीक्षा न करके भूख से पीडित होता हुआ पानी आदि को पी करके ही उस भूख को नष्ट करके भोजन के आनन्द को भी नष्ट कर देता है । अभिप्राय यह है कि जो विषयतृष्णा के वशीभूत होकर व्रतादि के आचरण को छोड़ देता है उसे मोक्षसुख मिलना तो दूर ही रहा, किन्तु वह विशिष्ट विषयसुख भी उसे प्राप्त नहीं होता जो कि स्वर्गादि में जाकर प्राप्त किया जा सकता था ॥१६१॥