+ महामुनियों का कुछ भी बिगाड़ने में कर्म असमर्थ -
निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् ।
किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानकचक्षुषाम् ॥१६२॥
अन्वयार्थ : जिन साधुओं के निर्धनता (उत्तम आकिंचन्य) ही धन है तथा मृत्यु ही जिनका जीवन है उन ज्ञानरूप अद्वितीय नेत्र को धारण करने वाले साधुओं का भला कर्म क्या अनिष्ट कर सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता है ॥१६२॥
Meaning : What harm can karma do to the ascetics endowed with the knowledge-eye, whose wealth is their nonpossessiveness and whose life is their death?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार अन्य जनों को प्राणों से अधिक धन प्रिय होता है उसी प्रकार साधुओं को भी निर्धनता (दिगम्बरत्व) अधिक प्रिय होती है । कारण कि उनका वही एक अपूर्व धन है, जिसकी कि वे सदा से रक्षा करते हैं । ऐहिक सुख की अभिलाषा करने वाले प्राणियों को जैसे जीवन प्रिय होता है वैसे ही परमार्थिक सुख की अभिलाषा रखने वाले साधु पुरुषों को मरण प्रिय होता है । वे वृद्धत्व एवं किसी असाध्य रोग आदि के उपस्थित होने पर धर्म का रक्षण करते हुए प्रसन्नता से समाधिमरण को स्वीकार करते हैं। उन मनस्वियों को किंचित् भी मरण का भय नहीं होता। उसका भय तो केवल अज्ञानी जीवों को ही हुआ करता है । ऐसी अवस्था में देव भला उनका क्या अनिष्ट कर सकता है ? कुछ भी नहीं । कारण यह कि दैव यदि कुछ अनिष्ट कर सकता है तो यही कर सकता है कि वह धन को नष्ट कर देगा, इससे भी अधिक कुछ अनिष्ट वह कर सकता है तो प्राणों का अपहरण कर लेगा । सो यह उक्त मनस्वी जीवोंको इष्ट ही है । तब उसने उनका अनिष्ट किया ही क्या ? कुछ नहीं ॥१६२॥