
परां कोटिम् समारूढौ द्वावेव स्तुतिनिन्दयोः ।
यस्त्यजेत्तपसे चक्रं यस्तपो विषयाशया ॥१६४॥
अन्वयार्थ : जो मनुष्य तप के लिये चक्रवर्ती की विभूति को छोडता है तथा इसके विपरीत जो विषयों की अभिलाषा से उस तप को छोडता है वे दोनों ही क्रमशः स्तुति और निन्दा की उत्कृष्ट सीमा पर पहुंचते हैं ॥१६४॥
Meaning : The man who leaves the grandeur of king-of-kings for the sake of austerities and, on the other hand, the man who leaves austerities for the sake of sense-pleasures, in turn, reach the highest levels of adoration and of derision.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जो विवेकी जीव चक्रवर्ती जैसी विभूति को पाकर भी उसे आत्महित में बाधक जानकर तुच्छ तृण के समान छोड देता है और निर्ग्रन्थ होकर दुर्धर तप को स्वीकार करता है वह सबसे अधिक प्रशंसा के योग्य है । इसके विपरीत जो कारण पाकर विरक्ति को प्राप्त होता हुआ प्रथम तो राज्यवैभव को छोडकर तप को स्वीकार करता है, और फिर पीछे उन्हीं पूर्वभुक्त भोगों की अभिलाषा से उस दुर्लभ तप को छोडकर पुनः उस सम्पत्ति का उपभोग करने लगता है, वह सबसे अधिक निन्दा का पात्र है- उसकी अज्ञानता को धिक्कार है ॥१६४॥
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