
त्यजतु तपसे चक्रं चक्री यतस्तपसः फलं
सुखमनुपमं स्वोत्थं नित्यं ततो न तदद्भुतम् ।
इदमिह महच्चित्रं यत्तद्विषं विषयात्मकं
पुनरपि सुधीस्त्यक्तं भ क्तुं जहाति महत्तपः ॥१६५॥
अन्वयार्थ : चूंकि तप का फल जो सुख है वह सुख अनुपम- समस्त संसारी जीवों को दुर्लभ, कर्म की अपेक्षा न करके केवल आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होनेवाला, और सदा रहने वाला है; इसीलिये यदि चक्रवर्ती उस तप के लिये साम्राज्य को छोड़ देता है तो वह कुछ आश्चर्य की बात नहीं है । आश्चर्य तो महान् इस बात का है कि जो बुद्धिमान् पूर्व में विषयों को विष के समान घातक समझकर छोड देता है और तत्पश्चात् उन्हीं छोडे हुए विषयों को फिर से भोगने के लिये ग्रहण किये हुए उस महान् तप को भी छोड देता है ॥१६५॥
Meaning : The happiness obtained as fruit of austerities is unparalleled , self-dependent , and eternal. There is no wonder if the king-of-kings leaves his kingdom for the sake of austerities . The great wonder, however, is when the wise man who had earlier renounced, like deadly poison, the sensepleasures, later on, leaves great austerities to indulge again in those sense-pleasures.
भावार्थ