
शय्यातलादपि तुकोऽपि भयं प्रपातात्
तुङ्गात्ततः खलु विलोक्य किलात्मपीडाम् ।
चित्रं त्रिलोकशिखरादपि दूरतुङ्गाद्
धीमान स्वयं न तपसः पतनाद्विभेति ॥१६६॥
अन्वयार्थ : देखो, बालक भी ऊंचे शय्यातल से गिर जाने पर होने वाली अपनी पीडा को देखकर निश्चयतः उससे भय को प्राप्त होता है । परन्तु आश्चर्य है कि बुद्धिमान साधु तीन लोक के शिखर से भी अतिशय ऊंचे उस तप से स्वयं च्युत होता हुआ भय को प्राप्त नहीं होता है ॥१६६॥
Meaning : Even a child, apprehending injury, is fearful of falling down from his elevated bedstead. It is, however, highly surprising that the ‘wise’ ascetic is not fearful of falling down, on his own doing, from the high of austerities , higher than the summit of the three worlds.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- तप तीनों लोकों में अतिशय पूज्य एवं अविनश्वर सुख का कारण है, इसीलिये उसे तीन लोक के शिखर से भी उन्नत बतलाया गया है । जो बालक हिताहित के विवेक से रहित होता है वह भी जब ऊंचे किसी पलंग - या पालने आदि में स्थित होता है तब वहां से गिर पडने की आशंका से भयभीत होता है। परन्तु जो साधु विवेकी है और इसीलिये जिसने विषयतृष्णा को छोडकर तप को स्वीकार किया था वह फिर से भी उस उच्छिष्टक समान विषयसुख के उपभोग के लिये आतुर होता हुआ ग्रहण किए हुए उस तप को छोडकर दुर्गति में पडने से भयभीत नहीं होता, यह कितने आश्चर्य की बात है। ऐसे साधु को उस अज्ञान बालक से भी अधिक मूर्ख समझना चाहिये ॥१६६॥
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