
भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां जीव को मन्थनदण्ड (मथानी) के समान बतलाया है। उससे सम्बद्ध कर्म उस मन्थनदण्ड के ऊपर लिपटी हुई रस्सी के समान हैं, उसकी राग और द्वेषमय प्रवृत्ति उक्त रस्सी को एक ओर से खींचने और दूसरी ओर से कुछ ढीली करने के समान है, तथा उससे होनेवाला बन्ध और सविपाक निर्जरा उस रस्सी के बंधने और उकलने के समान है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मथानी में लिपटी हुई रस्सी को एक ओर से खींचने और दूसरी ओर से ढीली करने पर वह रस्सी बंधती व उकलती ही रहती है तथा इस प्रकार से वह मथनदण्ड बराबर घूमता ही रहता है- उसे विश्रान्ति नहीं मिलती। हां, यदि उस रस्सी को एक ओर से सर्वथा छोडकर दूसरी ओर से पूरा ही खींच लिया जाय तो फिर उसका इस प्रकार से बंधना और उकलना चालू नहीं रह सकेगा। तब मन्थनदण्ड स्वयमेव स्थिर- परिभ्रमण से रहित- हो जावेगा। ठीक इसी प्रकार से जब तक जीव की राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति चालू रहती है तबतक वह कर्मों का बन्ध करके और उनका फल भोगकर निर्जरा भी करता ही रहता है । कारण यह कि राग-द्वेष से जिन नवीन कर्मों का बन्ध होता है उनके उदय में आने पर जीव तत्कृत सुखदुःखरूप फल को भोगता हुआ फिर भी राग-द्वेषरूप परिणमन करता है । इस प्रकार से यह क्रम जब तक चालू रहता है तबतक प्राणी चतुर्गतिरूप इस संसार में परिभ्रमण करता ही रहता है । परन्तु यदि वह रागद्वेष से बांधे गये उन कर्मों को तपश्चरणादि के द्वारा अविपाक निर्जरास्वरूप से नष्ट कर देता है तो फिर राग-द्वेषरूप परिणति से रहित हो जाने के कारण उसके नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है । और तब संवर एवं निर्जरा के आश्रय से उसका संसारपरिभ्रमण भी नष्ट हो जाता है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि जबतक प्राणी राग-द्वेषरूप परिणमन करता है तक उसका चित्त स्थिर नहीं रह सकता है, और जबतक चित्त स्थिर नहीं होता है तबतक ध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतएव ध्यान की प्राप्ति के लिये राग-द्वेष से रहित होना अनिवार्य है॥१७८॥ |