+ अविपाक निर्जरा की प्रेरणा -
मुच्यमानेन पाशेन भ्रान्तिर्बन्धश्च मन्थवत् ।
जन्तोस्तथासौ मोक्तव्यो येनाभ्रान्तिरबन्धनम् ॥१७९॥
अन्वयार्थ : छोडी जानेवाली रस्सी की फांसी के द्वारा मथानी के समान जीव के नवीन बन्ध और परिभ्रमण चालू रहता है। अतएव उसको इस प्रकार से छोडना चाहिये कि जिससे फिर से बन्धन और परिभ्रमण न हो सके ॥१७९॥
Meaning : The stick of the churner is perennially bound with the rope as winding and unwinding of its two ends take place. Similarly, the soul continues to get bound with new karmas and, as a consequence, its whirling around in the world continues. The rope should be loosened at both ends to stop bondage of new karmas, and soul’s whirling around in the world.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार मथानी में फांसी के समान लिपटी हुई रस्सी यदि एक ओर से खींचने के साथ दूसरी ओर से ढीली की जाती है तब तो मथानी का बंधना व घुमना बराबर चालू ही रहता है। किन्तु यदि उस रस्सी को दोनों ओर से ही ढीला कर दिया जाता है तो फिर मथानी के घूमने की क्रिया सर्वथा बन्द हो जाती है । ठीक इसी प्रकार से जीव की फांसी स्वरूप सम्बद्ध कर्म को यदि सविपाक निर्जरा के द्वारा राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति के साथ छोडते हैं- निर्जीर्ण करते हैं- तब जो जीव के नवीन कर्मों का बन्ध और संसार परिभ्रमण पूर्ववत् बराबर चालू रहता है । परन्तु यदि उक्त कर्मरूप फांसी को अविपाक निर्जरापूर्वक राग-द्वेष से रहित होकर छोडा जाता है तो फिर उसके नवीन कर्मों का बन्ध और संसारपरिभ्रमण दोनों ही रुक जाते है। अतएव सविपाक निर्जरा हेय और अविपाक निर्जरा उपादेय है, यह अभिप्राय यहां ग्रहण करना चाहिये ॥१७९॥