+ बन्ध और मुक्ति का कारण -
रागद्वेषकृताभ्यां जन्तोर्बन्धः प्रवृत्त्यवृत्तिभ्याम्।
तत्त्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामेवेक्ष्यते मोक्षः ॥१८०॥
अन्वयार्थ : राग और द्वेष के द्वारा की गई प्रवृत्ति और निवृत्ति से जीव के बन्ध होता है तथा तत्त्वज्ञानपूर्वक की गई उसी प्रवृत्ति और निवृत्ति के द्वारा उसका मोक्ष देखा जाता है ॥१८०॥
Meaning : Association (pravÃtti) and dissociation (nivÃtti) out of attachment (rāga) and aversion (dveÈa) result in soul’s bondage (with karmas); association (pravÃtti) and dissociation (nivÃtti) out of knowledge of the reality result in liberation (mokÈa).

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जीव जब तक बाह्य पर पदार्थों में इष्ट और अनिष्ट की कल्पना करता है तब तक उसके जिस प्रकार इस पदार्थ के संयोग में हर्ष और उसके वियोग में विषाद होता है उसी प्रकार अनिष्ट पदार्थ के संयोग में द्वेष और उसके वियोग में हर्ष भी होता है। इस प्रकार से जब तक उसकी इष्ट वस्तु के ग्रहणादि में प्रवृत्ति और अनिष्ट वस्तु के विषय में निवृत्ति होती है तब तक उसके कर्मों का बन्ध भी अवश्य होता है । इसके विपरीत जब वह तत्त्वज्ञानपूर्वक अनिष्ट हिंसा आदि के परिहार और इष्ट (तप-संयम आदि) के ग्रहण में प्रवृत्त होता है तब उसके नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव (संवर) और पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिये यह ठीक ही कहा गया है कि 'रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुच्यते । ' अर्थात् रागी जीव तो कर्म को बांधता है और वीतराग उससे मुक्त होता है- निर्जरा करता है। इसी प्रकार पुरुषार्थसिद्धयुपाय (२१२-२१४) में भी राग को बन्ध का कारण और रत्नत्रय को बन्धाभावका कारण बतलाया गया है ॥१८०॥