
भावार्थ :
विशेषार्थ- जीव की प्रवृत्ति तीन प्रकार की होती है- अशुभ, शुभ और शुद्ध । इनमें अशुभ प्रवृत्ति व्रत-संयमादि से द्वेष रखकर दुर्व्यसनादि में अनुराग रखने से होती है और वह पापबंधन की कारण होती है। इसके विपरीत शुभ प्रवृत्ति उन दुर्व्यसनादि को अनिष्ट समझकर व्रत-संयमादि में अनुराग रखने से होती है और वह पुण्यबन्ध की कारण होती है। इनके अतिरिक्त राग और द्वेष इन दोनों से ही रहित होकर जो आत्मध्यानरूप जीव की प्रवृत्ति होती है वह है उसकी शुद्ध प्रवृत्ति और वह उपर्युक्त पाप और पुण्य दोनों के ही नाश का कारण होती है । यह अन्तिम प्रवृत्ति (शुद्धोपयोग) ही जीव को उपादेय है । परंतु जबतक वह शुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति सम्भव नहीं है तबतक जीव के लिये उस अशुभ प्रवृत्ति को छोडकर शुभप्रवृत्ति को अपनाना भी योग्य है । परंतु अशुभ प्रवृत्ति तो सर्वथा और सर्वदा हेय ही है। उदाहरण के रूप में जैसे ब्रह्मचर्य सर्वदा और सर्वथा ही उपादेय है। परंतु जो उसका सर्वथा पालन नहीं कर सकता है उसके लिये यह भी अच्छा है कि किसी योग्य कन्या को सहधर्मिणी के रूप में स्वीकार करके अन्य स्त्रियों की ओर से विरक्त होता हुआ केवल उसी के साथ अनासक्तिपूर्वक विषयसुख का अनुभव करे । इसके विपरीत स्वस्त्री और परस्त्री आदि का भेद न करके स्वेच्छाचारिता से आसक्ति के साथ विषयभोग करना, यह सर्वथा निन्द्य ही समझा जाता है- उसकी प्रशंसा कभी भी किसी के द्वारा नहीं की जाती है यही भाव यहां अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोग के भी विषय में समझना चाहिये ॥१८१॥ |