+ जन्म की मरण से समानता -
मृत्योर्मृत्यन्तरप्राप्तिरुत्पत्तिरिह देहिनाम् ।
तत्र प्रमुदितान् मन्ये पाश्चात्ये पक्षपातिनः ॥१८८॥
अन्वयार्थ : यहां संसार में एक मरण से जो दूसरे मरण की प्राप्ति है, यही प्राणियों की उत्पत्ति है। इसलिये जो जीव उत्पत्ति में हर्ष को प्राप्त होते हैं वे पीछे होनेवाली मृत्यु के पक्षपाती हैं, ऐसा मैं समझता हूं ॥१८८॥
Meaning : In this world, the birth is the interval between the previous death and the next death. I, therefore, reckon that those who rejoice the birth are endorsing the upcoming death.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- लोक में जब किसी के यहां पुत्रादि का जन्म होता है तब तो कुटुम्बी जन अतिशय हर्ष को प्राप्त होकर उत्सव मनाते हैं और जब किसी इष्ट का मरण होता है तब वे दुखी होकर रुदन करते हैं। वे यह नहीं विचार करते कि वह जन्म क्या है, आखिर आगे होने वाली मृत्यु का ही तो वह निमन्त्रण है । फिर जब वे पुत्रादि के जन्म में उत्सव मनाते हैं तो यही क्यों न समझा जाय कि वे आगे होने वाली उसकी मृत्यु का ही उत्सव मना रहे हैं। कारण यह कि जब वह उत्पन्न हुआ है तो मरेगा भी अवश्य ही। कहा भी है-

संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः ।

किमन्यैरङ्गतोऽप्यङ्गी निःसंगो हि निवर्तते ॥

अर्थात् जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग भी अवश्यंभावी है। अन्य की तो बात ही क्या है, किन्तु प्राणी सब कुछ यहीं पर छोडकर इस शरीर से भी अकेला ही निकलकर जाता है ॥ क्ष. चू. 1-60 ॥

अभिप्राय यह है कि प्राणी की मृत्यु और जन्म ये दोनों परस्पर अविनाभावी हैं । अतएव विवेकी जीव को न तो जन्म में हर्षित होना चाहिये और न मरण से दुखी भी। अन्यथा वह इस भव में तो दुखी है ही,साथ ही इस प्रकार से असातावेदनीय आदि का बन्ध करके परभव में भी दुखी ही रहनेवाला है ॥१८८॥