
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार कोई मनुष्य वृक्ष को लगाता है, जलसिंचन आदि से उसे बढाता है, और आपत्तियों से उसका रक्षण भी करता है । परन्तु समयानुसार जब उसमें फूल आते हैं तब वह उन्हें तोड लेता है और इसी संतोष का अनुभव करता है। इस प्रकार से वह मनुष्य भविष्य में आनेवाले उसके फलों से वंचित ही रहता है। कारण यह कि फलों को उत्पत्ति के कारण तो वे फूल ही थे जिन्हें कि उसने तोडकर नष्ट कर दिया है। ठीक इसी प्रकार से जो प्राणी आगम का अभ्यास करता है और घोर तपश्चरण भी करता है परंतु यदि वह उनके फलस्वरूप प्राप्त हुई ऋद्धियों एवं पूजा-प्रतिष्ठा आदि में ही सन्तुष्ट हो जाता है तो उसको उस तप का जो यथार्थ फल स्वर्ग-मोक्ष का लाभ था वह कदापि नहीं प्राप्त हो सकता है। अतएव तपरूप वृक्ष के रक्षण एवं संवर्धन का परिश्रम उसका व्यर्थ हो जाता है। अभिप्राय यह हुआ कि यदि तप से ऋद्धि आदि को प्राप्तिरूप लौकिक लाभ होता है तो इससे साधु को न तो उसमें अनुरक्त होना चाहिये और न किसी प्रकारका अभिमान भी करना चाहिये । इस प्रकार से उसे उसके वास्तविक फलस्वरूप उत्तम मोक्षसुख की प्राप्ति अवश्य होगी ॥१८९॥ |