+ शरीर को धिक्कार है -
शुद्धोऽप्यशेषविषयावगमोऽप्यमूर्तोs
प्यात्मन् त्वमप्यतितरामशुचीकृतोऽसि।
मूर्तम् सदाशुचि विचेतनमन्यदत्र
किं वा न दूषयति धिग्धिगिदं शरीरम् ॥२०२॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन् ! तू स्वभाव से शुद्ध, समस्त विषयों का ज्ञाता और रूप-रसादि से रहित (अमूर्तिक) हो करके भी उस शरीर के द्वारा अतिशय अपवित्र किया गया है । ठीक है- वह मूर्तिक, सदा अपवित्र और जड शरीर यहां कौन-सी पवित्र वस्तु (गन्ध विलेपनादि) को मलिन नहीं करता है ? अर्थात् सबको ही वह मलिन करता है । इसलिये ऐसे इस शरीर को बार बार धिक्कार है ॥२०२॥
Meaning : O soul! You are by nature, pure, all-knowing, and without colour and taste, etc.; you have been greatly polluted by the body. It is right; which pure object that comes in contact with this corporeal, always dirty, and inanimate body, does not get polluted? Fie on such body

  भावार्थ 

भावार्थ :