+ साधर्मियों के प्रति ईर्ष्या के त्याग की प्रेरणा -
उद्युक्तस्त्वं तपस्यस्यधिकमभिभवं त्वामगच्छन् कषायाः प्राभूद्वोधोऽप्यगाधो जलमिव जलधौ किं तु दुर्लक्ष्यमन्यैः ।
निर्व्यूढेऽपि प्रवाहे सलिलमिव मनाग्निम्न देशेष्ववश्यं
मात्सर्यं ते स्वतुल्ये भवति परवशाद् दुर्जयं तज्जहीहि ॥२१५॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! तू तपश्चरण में उद्यत हुआ है, कषायों का तूने अतिशय पराभव कर दिया है, तथा समुद्र में स्थित आगाध जल के समान तेरे में अगाध ज्ञान भी प्रगट हो चुका है; तो भी जैसे प्रवाह के सूख जाने पर भी कुछ नीचे के भाग में पानी अवश्य रह जाता है जो कि दूसरों के द्वारा नहीं देखा जा सकता है, वैसे ही कर्म के वश से जो अपने समान अन्य व्यक्ति में तेरे लिये मात्सर्य (ईर्ष्या भाव) होता है वह दुर्जय तथा दूसरों के लिये अदृश्य है । उसको तू छोड दे ॥२१५॥
Meaning : O worthy soul! You have embarked on austerities (tapa), greatly subdued the passions (kaÈāya), and deep knowledge, like waters of the ocean, has manifested in you. Still, subdued by karmas, you carry invincible jealousy, invisible to others, for your fellow-ascetics; it is like the invisible flow of water deep in the seemingly placid ocean. Get rid of this jealousy.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जो जीव घोर तपश्चरण कर रहा है, कषायों को शान्त कर चुका है, तथा जिसे अगाध ज्ञान भी प्राप्त हो चुका है, फिर भी उसके हृदय में अपने समान गुणवाले अन्य व्यक्ति के विषय में जब कभी मात्सर्यभाव का प्रादुर्भाव हो सकता है जो कि दूसरों के द्वारा नहीं देखा जा सकता है । जैसे- जलप्रवाह के सूख जाने पर भी कुछ नीचे के भागों में जल शेष रह जाता है । उस मात्सर्य भाव को भी छोड देनेका यहां उपदेश दिया गया है ॥२१५॥