+ क्रोध से होनेवाली हानि -
चित्तस्थमप्यनवबुद्धय हरेण जाड्यात्
क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङगबुद्धया ।
घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां
क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥२१६॥
अन्वयार्थ : जिस महादेव ने क्रोध के वश होते हुए अज्ञानता से चित्त में भी कामदेव को न जानकर उस कामदेव के भ्रम से किसी बाह्य वस्तु को जला दिया था वह महादेव उक्त काम के द्वारा की गई भयानक अवस्था को प्राप्त हुआ है। ठीक है- क्रोध के कारण किसके कार्य की हानि नहीं होती है ? अर्थात् उसके कारण सब ही जन के कार्य की हानि होती है॥२१६॥
Meaning : (As per the Hindu mythology–) The super-deva (Mahādeva, the destroyer), subjugated by anger and not appreciating that Cupid lived in his own heart, had burnt down certain external thing mistaking it for the ‘god of love’. Cupid, later on, made him suffer greatly. It is right; whose effort does not become worthless by anger?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जब महादेव तपस्या कर रहे थे तब उनको प्रसन्न करने के लिये पार्वती कामदेव के साथ वहां पहुंची और नृत्यादि के द्वारा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करने लगी, इधर कामदेव ने भी बसन्त ऋतु का निर्माण कर उनके ऊपर पुष्पबाणों को छोडना प्रारम्भ कर दिया। इससे क्रोधित होकर महादेव ने तीसरे नेत्र से अग्नि को प्रगट कर उक्त कामदेव को भस्म ही कर दिया । ऐसी कथा महाकवि कालिदासकृत कुमारसम्भव आदि में प्रसिद्ध है। इसी कथा को लक्ष्य में रखकर यहां बतलाया है कि महादेव ने जिस कामदेव को क्रोध के वश होकर भस्म किया था वह तो वास्तव में कामदेव नहीं था, सच्चा कामदेव तो उनके हृदय में स्थित था जिसे उन्होंने जाना ही नहीं। इसीलिये उस कामदेव ने पीछे पार्वती के साथ विवाह हो जाने पर उनकी वह दुरवस्था की थी। यह सब अनर्थ एक क्रोध के कारण हुआ। अतएव ऐसे अनर्थकारी क्रोध का परित्याग ही करना चाहिये॥२१६॥