+ इन्द्रिय-सुख से दुःखों की शान्ति असम्भव -
तावद् दुःखाग्नितप्तात्मायःपिण्डः सुखसीकरैः ।
निर्वासि निर्वृत्ताम्भोधौ यावत्त्वं न निमज्जसि ॥२३३॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! जब तक तू मोक्षसुखरूप समुद्र में नहीं निमग्न होता है तब तक तू दुखरूप अग्नि से तपे हुए लोहे के गोले के समान विषयजनित क्षणिक लेशमात्र सुख से सुखी नहीं हो सकता है ॥२३३॥
Meaning : As long as you do not get immersed in the ocean that is the happiness of liberation, you, like the red-hot iron-ball of misery, cannot get happiness just by momentary sprinkling of the pleasures of the senses.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार अग्नि से संतप्त लोहे के गोले को यदि थोडे-से पानीमें डाला जाय तो वह उतने मात्र से शान्त (शीतल) नहीं होता है, किन्तु जब उसे अधिक पानी के भीतर पूरा डुबा दिया जाता है तब ही वह शान्त होता है । इसी प्रकार जन्ममरणादि के अनेक दुःखों से संतप्त प्राणी को यदि थोडा-सा विषयजन्य क्षणिक सुख प्राप्त होता है तो इससे वह वास्तव में सुखी नहीं हो सकता है। वह पूर्णतया सुखी तो तब ही हो सकता है जब कि कर्मबन्धन से रहित होकर अनन्त शाश्वतिक सुख को प्राप्त कर ले ॥२३३॥