
मामन्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे । नान्योऽहमहमेवाहमन्योऽन्योऽहमस्ति न ॥२४३॥
अन्वयार्थ : मुझको अन्य शरीरादिरूप तथा शरीरादि को मैं समझकर यह प्राणी उक्त भ्रम के कारण अबतक संसाररूप समुद्र में घूमा है । वास्तव में मैं अन्य नहीं हूं- शरीरादि नहीं हूं, मैं मैं ही हूं; और अन्य अन्य ही है, अन्य मैं नहीं हूं; इस प्रकार जब अभ्रान्त ज्ञान उत्पन्न होता है तब ही प्राणी उक्त संसाररूप समुद्र के परिभ्रमण से रहित होता है ॥२४३॥
Meaning : Mistaking the self for the body and the body for the self , this soul has been wandering in the world. ‘Certainly, I am not others, I am not the body, etc.; I am only I. And, the others are others only; others are not I.’ When this true discernment dawns on the soul, it gets rid of wandering in the world.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जीव जब तक शरीर को ही आत्मा मानता है- शरीर से भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को उससे पृथक् नहीं मानता है- तब तक वह इस भ्रम के कारण परपदारर्थों में राग-द्वेष करके कर्मोदय से संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुख सहता है। और जब उसका उपर्युक्त भ्रम हट जाता है- तब वह आत्मा को आत्मा एवं शरीरादि परपदार्थों को पर मानने लगता है- तब वह राग-द्वेष से रहित होकर उक्त संसारपरिभ्रमण से छूट जाता है ॥२४३॥
|