+ विद्वानों का अपूर्व कौशल -
बन्धो जन्मनि येन येन निबिडं निष्पादितो वस्तुना
बाह्यार्थैकरतेः पुरा परिणतप्रज्ञात्मनः सांप्रतम् ।
तत्तत्तन्निधनाय साधनमभूद्वैराग्यकाष्ठास्पृशो
दुर्बोधं हि तदन्यदेव विदुषामप्राकृतं कौशलम् ॥२४४॥
अन्वयार्थ : संसार के भीतर बाह्य पदार्थों में अतिशय अनुराग रखने वाले जीव के पहिले जिस जिस वस्तु के द्वारा दृढ बन्ध उत्पन्न हुआ था उसी के इस समय यथार्थज्ञान से परिणत होकर वैराग्य की चरम सीमा को प्राप्त होने पर वह वह वस्तु उक्त बन्ध के विनाश का कारण हो रही है । विद्वानों की वह अलौकिक कुशलता अनुपम ही है जो दुर्बोध है- बडे कष्ट से जानी जाती है॥२४४॥
Meaning : The objects of the world for which the man had earlier entertained deep infatuation and caused severe bondage, later on, when he acquires true knowledge and thereby gets absolutely detached to these, the same objects cause destruction of the above-mentioned bondage. This divine deftness of wise men is unparalleled and extremely difficult to fathom.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- बन्ध के कारण राग-द्वेष हैं । जीव के जबतक आत्म-परविवेक प्रगट नहीं होता है तबतक उसके राग-द्वेष की विषयभूत हुई परवस्तुओं के निमित्त से बन्ध ही हुआ करता है । परन्तु जब उसके वह आत्म-परविवेक आविर्भूत हो जाता है तब वह पूर्व में जिन वस्तुओं से राग-द्वेष करके दृढ कर्मबन्ध करता था वे ही, अब उसकी चूंकि उपेक्षा की विषयभूत हो जाती हैं अतएव उन्हीं के निमित्त से अब उक्त बन्ध का विनाश-संवर और निर्जरा-होने लगती है । यह ज्ञान और वैराग्य का ही माहात्म्य है ॥२४४॥