
भावार्थ :
विशेषार्थ- बन्ध और निर्जरा की हीनाधिकता परिणामों के ऊपर निर्भर है। यथा-अभव्य जीव के परिणाम चूंकि निरन्तर संक्लेशरूप रहते हैं, अतः उसके बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है । आसन्नभव्य के परिणाम निर्मल होने से उसके बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है । दूरभव्य के मध्यम जाति के परिणाम होने से उसके बन्ध और निर्जरा दोनों समानरूप में होते हैं। तथा जीवन्मुक्त अवस्था में बन्ध का अभाव होकर केवल निर्जरा ही होती है । यह बन्ध और निर्जरा का क्रम नाना जीवों की अपेक्षा से है । यदि उसका विचार एक जीव की अपेक्षा से करें तो वह इस प्रकार से किया जा सकता है मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है, अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है, मिश्र गुणस्थान में बंध और निर्जरा दोनों समानरूप में होते हैं, तथा क्षीणकषायादि गुणस्थानों में बंध का-स्थिति व अनुभागबंध का-अभाव होकर केवल निर्जरा ही होती है । वहां जो बंध होता है वह एक मात्र साता वेदनीय का होता है, सो भी केवल प्रकृति और प्रदेशरूप ॥२४५॥ |