+ बन्ध और निर्जरा की परिपाटी -
अधिकः क्वचिदाश्लेषः क्वचिद्धीनः क्वचित्समः ।
क्वचिद्विश्लेष एवायं बन्धमोक्षक्रमो मतः ॥२४५॥
अन्वयार्थ : किसी जीवके अधिक कर्मबन्ध होता है, किसीके अल्प कर्म, बन्ध होता है,किसी के समान ही कर्मबन्ध होता है, और किसी के कर्म का बन्ध न होकर केवल उसकी निर्जरा ही होती है। यह बन्ध और मोक्षका क्रम माना गया है ॥२४५॥
Meaning : For a certain soul, sometime there can be excessive (karmic) bondage (as compared to dissociation of karmas), sometime little bondage, sometime same (as dissociation), and sometime no bondage, just dissociation. This should be known as the sequence of bondage and liberation.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- बन्ध और निर्जरा की हीनाधिकता परिणामों के ऊपर निर्भर है। यथा-अभव्य जीव के परिणाम चूंकि निरन्तर संक्लेशरूप रहते हैं, अतः उसके बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है । आसन्नभव्य के परिणाम निर्मल होने से उसके बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है । दूरभव्य के मध्यम जाति के परिणाम होने से उसके बन्ध और निर्जरा दोनों समानरूप में होते हैं। तथा जीवन्मुक्त अवस्था में बन्ध का अभाव होकर केवल निर्जरा ही होती है । यह बन्ध और निर्जरा का क्रम नाना जीवों की अपेक्षा से है । यदि उसका विचार एक जीव की अपेक्षा से करें तो वह इस प्रकार से किया जा सकता है मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है, अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है, मिश्र गुणस्थान में बंध और निर्जरा दोनों समानरूप में होते हैं, तथा क्षीणकषायादि गुणस्थानों में बंध का-स्थिति व अनुभागबंध का-अभाव होकर केवल निर्जरा ही होती है । वहां जो बंध होता है वह एक मात्र साता वेदनीय का होता है, सो भी केवल प्रकृति और प्रदेशरूप ॥२४५॥