
भावार्थ :
विशेषार्थ- मुनिधर्म एक तालाब के समान है। जिस प्रकार तालाब जल से परिपूर्ण होता है उसी प्रकार वह मुनिधर्म सम्यग्दर्शनादि गुणों से परिपूर्ण होता है । यदि तालाब का बांध कहीं थोडा सा भी गिर जाता है तो उसमें फिर पानी स्थिर नहीं रह सकता है । इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्य सावधानी के साथ उसको ठीक करा देता है । ठीक इसी प्रकार से यदि साधुधर्म में भी की गई व्रतपरिपालन की प्रतिज्ञा में कुछ त्रुटि होती है तो बुद्धिमान् साधु को उसकी उपेक्षा न करके उसे शीघ्र ही प्रायश्चित्त आदि के विधान से सुधार लेना चाहिये । अन्यथा उसके सम्यग्दर्शनादि गुण स्थिर न रह सकेंगे॥२४७॥ |