+ अल्प दोष भी बहुत हानिकारक है -
दृढगुप्तिकपाटसंवृतिर्धृतिभित्तिर्मतिपादसंभृतिः ।
यतिरल्पमपि प्रपद्य रंध्रम् कुटिलैर्विक्रियते गृहाकृतिः ॥२४८॥
अन्वयार्थ : दृढ गुप्तियों (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति) रूप किवाडों से सहित, धैर्यरूप भित्तियों के आश्रित और बुद्धिरूप नीव से परिपूर्ण, इस प्रकार गृह के आकार को धारण करने वाला मुनिपद थोडे-से भी छिद्र को पाकर कुटिल राग-द्वेषादिरूप सर्पों के द्वारा विकृत कर दिया जाता है ॥२४८॥
Meaning : The asceticism is like a house. This house is protected by strong doors in form of ‘gupti’ – curbing of activities of the mind, the speech and the body. Its walls are ‘dhairya’ – firmness. Its foundation is ‘buddhi’ – the knowledge or the intellect. This house of asceticism is damaged by the snakes of attachment (rāga) and aversion (dveÈa) if even a small hole (of wrong-conduct) is left in it.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- मुनिपद एक प्रकार का घर है । मुनि जिन तीन गुप्तियों को धारण करते हैं वे ही इस घर के किवाड हैं, धैर्य जो है वही इस घर की भित्ति है, तथा घर जहां दृढ नीवक आश्रित होता है वहां वह मुनिपद भी बुद्धिरूप नीव के आश्रित होता है । इस प्रकार मुनिपद में घर की समानता के होने पर जिस दृढ किवाडों आदि से संयुक्त भी घर में यदि कहीं कोई छोटासा भी छिद्र रह जाता तो उसके द्वारा कुटिल सर्पादिक उसके भीतर प्रविष्ट होकर उसे भयानक बना देते हैं । इसी प्रकार उक्त घर के समान मुनिपद में भी कहीं कोई छोटा-सा भी छिद्र (दोष) रहता है तो उक्त छिद्र के द्वारा उस मुनिपद में भी उन विषैले सर्पों के समान कुटिल रागद्वेषादि प्रवेश करके उस मुनिपद को भी नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं । अतएव मोक्षाभिलाषी साधु को यदि अज्ञानता या प्रमाद से कोई दोष उत्पन्न होता है तो उसे शीघ्र ही नष्ट कर देने का प्रयत्न करना चाहिये॥२४८॥