
भावार्थ :
विशेषार्थ- मुनिपद एक प्रकार का घर है । मुनि जिन तीन गुप्तियों को धारण करते हैं वे ही इस घर के किवाड हैं, धैर्य जो है वही इस घर की भित्ति है, तथा घर जहां दृढ नीवक आश्रित होता है वहां वह मुनिपद भी बुद्धिरूप नीव के आश्रित होता है । इस प्रकार मुनिपद में घर की समानता के होने पर जिस दृढ किवाडों आदि से संयुक्त भी घर में यदि कहीं कोई छोटासा भी छिद्र रह जाता तो उसके द्वारा कुटिल सर्पादिक उसके भीतर प्रविष्ट होकर उसे भयानक बना देते हैं । इसी प्रकार उक्त घर के समान मुनिपद में भी कहीं कोई छोटा-सा भी छिद्र (दोष) रहता है तो उक्त छिद्र के द्वारा उस मुनिपद में भी उन विषैले सर्पों के समान कुटिल रागद्वेषादि प्रवेश करके उस मुनिपद को भी नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं । अतएव मोक्षाभिलाषी साधु को यदि अज्ञानता या प्रमाद से कोई दोष उत्पन्न होता है तो उसे शीघ्र ही नष्ट कर देने का प्रयत्न करना चाहिये॥२४८॥ |