
भावार्थ :
विशेषार्थ- यदि कोई व्यक्ति अजीर्णादि रोगों को शांत करने के लिये औषधि तो लेता है, किंतु भोजन छोडता नहीं है- उसे वह बराबर चालू ही रखता है तो ऐसी अवस्था में जिस प्रकार वे अजीर्णादि रोग कभी शांत नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार जो साधु रागादि दोषों को शान्त करने की इच्छा से घोर तपश्चरण तो करता किन्तु परनिन्दारूप भोजन को छोडता नहीं है; उसके वे रागादि दोष भी कभी नष्ट नहीं हो सकते हैं । कारण कि परनिन्दा करनेवाला ईर्ष्यालु मनुष्य मान कषाय के वश हो करके दूसरे में न रहने वाले दोषों को प्रगट करता है तथा जो गुण अपने में नहीं हैं उन्हे वह प्रकाशित किया करता है । इस प्रकार उसके वे राग-द्वेषादि घटने के बजाय बढते ही हैं॥२४९॥ |